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________________ १२२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ __ भावार्थ - जो लोग यह कहते हैं कि-"प्राणियों की हिंसा न करने वाले जो प्राणी मनोविकल और अव्यक्त ज्ञान वाले हैं उनको पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है" उनका कथन ठीक नहीं है इस बात को समझाने के लिये शास्त्रकार वधक का दृष्टान्त देकर अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। जैसे कोई पुरुष किसी कारण से गाथापति अथवा उसके पुत्र या राजा तथा राज पुरुष के ऊपर क्रोधित होकर उनके वध की इच्छा करता हुआ निरन्तर इस ख्याल में रहता है कि-"अवसर मिलने पर मैं इनका घात करूंगा ।" वह पुरुष जब तक अपने मनोरथ को सफल करने का अवसर नहीं पाता है तब तक दूसरे कार्य में लगा हुआ उदासीन सा बना रहता है। उस समय वह यद्यपि घात नहीं करता है तथापि उसके हृदय में उनके घात का भाव उस समय भी बना रहता है । वह सदा उनके घात के लिये तत्पर है परन्तु • अवसर न मिलने से घात नहीं कर सकता है अतः घात न करने पर भी वैसा भाव होने से वह पुरुष . सदा उनका घातक ही है इसी तरह अप्रत्याख्यानी तथा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय प्राणी भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों से अनुगत होने के कारण प्राणातिपात आदि पापों से दूषित ही हैं वे उनसे निवृत्त नहीं हैं। जैसे अवसर न मिलने से गाथापति आदि का घात न करने वाला पूर्वोक्त पुरुष उनका अवैरी नहीं किन्त वैरी ही है। उसी तरह प्राणियों का घात न करने वाले अप्रत्याख्यानी जीव भी प्राणियों के वैरी ही हैं अवैरी नहीं हैं यहां वध्य और वधक के विषय में चार भङ्ग समझना चाहिये१. वधक को घात करने का अवसर है परन्तु वध्य को नहीं है। २. वधक को घात करने का अवसर नहीं है परन्तु वध्य को है। ३. दोनों को अवसर नहीं है । ४. दोनों को अवसर है। आयरिय आह-जहा से वहए तस्स गाहावइस्स वा तस्स गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं णिहाय पविसिस्सामि खणं लभूणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे, एवमेव बालेवि सव्वेसिं पाणाणं जाव सव्वेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्च पसढविउवायचित्तदंडे, तंजहा-पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अप्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते, यावि भवइ, से बाले अवियारमण-वयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ पावे य से कम्मे कजइ॥ जहा से वहए तस्से वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ, एवमेव बाले सव्वेसिं पाणाणं जाव सव्वेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दिया वा राओ वा सो वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिए णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ ।६४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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