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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
तज्जोणिया, तस्संभवा, तदुवक्कमा, कम्मोवगा, कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा पुढवीजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खत्ताए विउट्टंति, ते जीवा तेसिं पुढवीजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं णाणा - विहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विप्परिणामियं सारूविकडं संतं अवरेवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा, णाणागंधा, णाणारसा, णाणाफासा, णाणासंठाण-संठिया, णाणाविहसरीरपुग्गलविउव्विया ते जीवा कम्मोववण्णगा भवतीतिमवखायं ॥ ४४ ॥
कठिन शब्दार्थ - रुक्खजोणिया- वृक्षयोनिक ।
भावार्थ - इस पाठ के पूर्व में पृथिवी में उत्पन्न होने वाले वृक्षों का वर्णन किया है अब इस पाठ द्वारा उन वृक्षों का वर्णन किया जाता है जो उन पृथिवी योनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं । जो वृक्ष, वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं उन्हें वृक्षयोनिक वृक्ष कहते हैं । ये वृक्षयोनिक वृक्ष, वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं और उसी में स्थित रहते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं । ये जीव भी अपने किये हुए कर्म से प्रेरित होकर ही इस गति को प्राप्त होते हैं किसी काल या ईश्वर आदि से प्रेरित होकर नहीं । इन वृक्षों का वर्णन भी पृथिवीयोनिक वृक्षों के समान ही किया गया है इसलिये वही वर्णन यहां भी जानना चाहिये ।। ४४ ॥
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अहावरं पुरक्खायं इहेगड्या सत्ता रुक्खजोणिया, रुक्खसंभवा, रुक्खवुक्कमा, तज्जोणिया, तस्संभवा, तदुवक्कमा, कम्मोवगा, कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खत्ताए विउट्टंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं अवरेऽवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीतिमक्खायं ॥ ४५ ॥
कठिन शब्दार्थ - भवंति होते हैं, इति ऐसा अक्खायं कहा गया है।
भावार्थ - श्री तीर्थङ्कर देव ने वनस्पति काय के जीवों का अन्य भेद भी कहा है । कोई जीव वृक्ष में उत्पन्न होते हैं और उसी में रहते हैं तथा वृद्धि को प्राप्त होते हैं वे वृक्ष से उत्पन्न और वृक्ष में ही स्थिति तथा वृद्धि को प्राप्त होने वाले जीव हैं वे कर्मवशीभूत होकर तथा कर्म के कारण उन वृक्षों में आकर वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन वृक्ष से उत्पन्न वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। वे
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