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________________ "णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स" सिरी सूयगडांग सुत्तं दूसरा श्रुतस्कन्ध उत्थानिका - पहला श्रुतस्कन्ध पूर्ण हुआ। उसके बाद दूसरा श्रुतस्कन्ध प्रारम्भ किया जाता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो बात संक्षिप्त में कही गयी है वही बात इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध में विस्तार के साथ एवं युक्तिपूर्वक बताई गयी है। जो बात संक्षेप और विस्तार दोनों प्रकार से बताई जाती है वह अच्छी तरह समझने में आती है। अतः प्रथम श्रुतस्कन्ध के तत्त्वों को विस्तार के साथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वारा वर्णन करना ठीक ही है। अथवा प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो बातें कहीं गयी हैं। उनको दृष्टान्त देकर सरलता के साथ समझाने के लिये इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना हुई है। अतः ये दोनों ही श्रुतस्कन्ध संक्षेप और विस्तार के साथ एक ही अर्थ के प्रतिपादक हैं यह जानना चाहिए। - इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन हैं। ये अध्ययन प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों से बहुत बड़े-बड़े हैं। इसलिये ये महा-अध्ययन कहे जाते हैं। इन में प्रथम अध्ययन का नाम पुण्डरीक अध्यनन • है। पुण्डरीक का अर्थ है सफेद कमल। इस अध्ययन में श्वेत कमल की उपमा देकर यहाँ धर्म में रुचि रखने वाले राजा महाराजा आदि बताये गये हैं और उनको विषय भोग से निवृत्त करके मोक्ष मार्ग का पथिंक बनाने वाले शुद्ध चारित्रवान् साधुओं का कथन किया गया है। जो लोग प्रव्रज्याधारी होकर भी विषय रूपी पङ्क (कीचड़) में निमग्न हो जाते हैं। वे साधु नहीं हैं। अतएव वे स्वयं संसार सागर में पार नहीं हो सकते हैं, तो फिर दूसरों को तो संसार सागर से पार ही कैसे कर सकते हैं? यह बात भी इस अध्ययन में बतलाई गयी है। पुण्डरीक नामक पहला अध्ययन सुयं मे आउसं तेणं भगवया एव-मक्खायं । इह खलु पोंडरीए णामझायणे, तस्सणं अयमढे पण्णत्ते - से जहा-णामए पुक्खरिणी सिया बहुउदगा बहुसेया बहु-पुक्खला लट्ठा पुंडरिकिणी पासाईया दरिसणिया अभिरुवा पडिरूवा। तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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