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________________ स्थान १० ३४१ १. अर्थ - ज्यां रे श्रमण भगवन्त महावीर छद्मस्थपणां मां हता त्यारे तेओ एक रात्रि ना छेल्ला प्रहर मां आ दस स्वप्नो जोई ने जाग्या । (भगवती शतक १६ उद्देशा ६, जैन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट अहमदाबाद द्वारा विक्रम संवत् १९९० में प्रकाशित, पं. भगवानदास हरखचंद दोशी कृत गुजराती अनुवाद चतुर्थखण्ड पृष्ठ १९) २. श्रमण भगवन्त श्री महावीर देव छद्मस्थकालपणा नी रात्रिइनइ अन्तिमभागे एह दस वक्ष्यमाण मोटा स्वप्न देखीने जागइ । ___(हस्तलिखित भगवती ५७० पानों वाली का टब्बा अर्थ पृष्ठ ३८९, सेठिया जैन ग्रन्थालय बीकानेर की प्रति) ३. 'अंतिम राइयंसि' - रात्रेरन्तिमे भागे - अर्थात् रात्रि के अन्तिम भाग में । (भगवती, आगमोदय समिति द्वारा वि. सं. १९७७ में प्रकाशित संस्कृत टीका पृष्ठ ७१०) ४. 'अंतिम राइयंसि' - अन्तिमा अन्तिमभागरूपा अवयवे समुदायोपचारात् । सा चासौ रात्रिका च अन्तिम रात्रिका तस्या रात्रेरवसाने इत्यर्थः' । अर्थात् रात्रि के अन्तिम भाग में । (ठाणांग सूत्र ठाणा १० सूत्र ७५० पृष्ठ ५०१ संस्कृत टीका आगमोदय समिति का) ५. अंतिमराइया - अन्तिम रात्रिका, अन्तिमा अन्तिम भागरूपा अवयवे समुदायोपचारात् सा चासौ रात्रिका चान्तिमरात्रिका, रात्रेरवसाने इत्यर्थः । ___ अर्थात् - अन्तिम भाग रूप जो रात्रि वह अन्तिमरात्रि है । यहाँ रात्रि के एक भाग को रात्रि शब्द से कहा गया है । इस प्रकार अन्तिम भागरूप रात्रि अर्थ निकलता है अर्थात् रात्रि के अन्तिम भाग में । (अभिधान राजेन्द्रकोष प्रथम भाग पृष्ठ १०१) ६. अंतिम राइ - रात्रि नो छेड़ो (छेल्लो) भाग, पिछली रात । (शतावधानी पं. रत्नचन्द्रजी म. कृत अर्धमागधी कोष प्रथम भाग पृष्ठ ३४) ७. 'अंतिम राइयंसि' अर्थात् श्रमण भगवन्त श्री महावीर छद्मस्थाए छेल्ली रात्रि ना अन्ते । ___(वि. सं. १८८४ में हस्तलिखित सवालखी भगवती श. १६ उ. ६) ८. श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी छद्मस्थ अवस्था की अन्तिम रात्रि में दस स्वप्नों को देख कर जागृत हुए। (भगवती सूत्र पृष्ठ २२२४ तथा ठाणांग सूत्र पृष्ठ ८६४ श्री अमोलखऋषिजी कृत हिन्दी अनुवाद) - उपरोक्त सब उद्धरणों का निष्कर्ष यह है कि छद्मस्थ अवस्था की अन्तिम रात्रि' लेना उचित लगता है क्योंकि यथातथ्य स्वप्नों का फल तत्काल मिलता है अत: वैसाख सुदी नवमी की रात्रि में ये स्वप्न देखे थे और उसके दूसरे दिन वैसाख सुदी दशमी को भगवान् को केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हो गये थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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