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________________ स्थान १० शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन । अहमपि ददामि किंचित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् । भावार्थ - इसने मेरा सैकड़ों बार उपकार किया है। मुझे हजारों बार दान दिया है। इसके उपकार का बदला चुकाने के लिए मैं भी कुछ देता हूँ। इस भावना से दिये गये दान को कृतदान या प्रत्युपकार दान कहते हैं। यहाँ पर चौथे दान का नाम 'कारुण्य दान' कहा है, प्राकृत भाषा में आगम में इसको 'कालुणिए दान' कहा है। यह मोक्ष के वशीभूत होकर आर्तध्यान करते हुए इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग में जो दान दिया जाता है उसे 'कारुण्य दान' कहा है। अनुकम्पा का दूसरा नाम करुणा है इसलिए अनुकम्पा दान या करुणा दान से यह भिन्न है इसका नाम कारुण्य है अनुकम्पा (करुणा) दान दीन दुःखी को दिया जाता है अनुकम्पा आत्मा का गुण है एवं समकित का लक्षण है। अनुकम्पा एकान्त निरवद्य है अनुकम्पा कभी सावद्य नहीं होती। दुःखी को देख कर हृदय में जो करुणा के भाव पैदा होते हैं वह अनुकम्पा है। मेरी भावना में कहा है- 'दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे । ' दुःखी दुःख को दूर करने के उपाय सावध और निरवद्य दोनों तरह के हो सकते हैं - जैसे कि भूख • प्यास से पीड़ित व्यक्ति को अपने पास की रोटी दे दी और अचित्त पानी (धोवन या गरम पानी) या छाछ पिला दी तो यह उपाय भी निरवद्य है किन्तु किसी ने कच्चा पानी पिला दिया तो यह उपाय सावध है परन्तु इससे अनुकम्पा सावध नहीं हो जाती क्योंकि अनुकम्पा तो आत्मा का गुण है। ज्ञाता सूत्र में जिन पालित और जिन रक्षित का वर्णन आता है वहाँ रमणा देवी के विलाप को सुन कर जिनरक्षित को मोहवश यह कालुणिए भाव आया था इसको करुणा भाव कहना मिथ्या है। निष्कर्ष यह निकला कि अनुकम्पा दान (करुणा दान) और यह कालुणिए दान ये दोनों भिन्न है। क्योंकि अनुकम्पा दान तो धर्मदान में समाविष्ट होता है और कालुणिए (कारुण्य) दान अधर्म दान में समाविष्ट होता है। धर्मदान में तीन दानों का समावेश होता है १. अभयदान २. ज्ञान दान और ३. सुपात्र दान । अभयदान की विशेषता बतलाते हुए सूयगडाङ्ग सूत्र के छठे अध्ययन में कहा है - 'दाणाण से अभवष्यमार्ण' ॥ २३ ॥ ३३३ ०० · अर्थात् दानों में श्रेष्ठ अभयदान है। भय से भयभीत बने हुए प्राणी के प्राणों की रक्षा करना अभय दान है। जिस ज्ञान से आत्मा का कल्याण सधे वैसा धार्मिक ज्ञान धर्मदान में जाता है। अभयदान का दूसरा पर्यायवाची नाम अनुकम्पा दान है जो दस दानों में अलग बतला दिया गया है। जिसका पहला नम्बर है। यह समकित का लक्षण होने से इसे प्रथम नम्बर दिया गया है। गति दस गतियाँ दस बतलाई गई हैं। वे निम्न प्रकार हैं - J Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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