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स्थान १०
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(ख) विधिगृहीत, अविधिभुक्त। (ग) अविधिगृहीत, विधिभुक्त। (घ) अविधिगृहीत, अविधिभुक्त।
इन चारों भङ्गों में प्रथम भङ्ग ही शुद्ध है। आगे के तीनों भङ्ग अशुद्ध हैं। इन तीनों भङ्गों से किया गया आहार आहार परिहरणोपघात कहलाता है।
६.ज्ञानोपघात - ज्ञान सीखने में प्रमाद करना ज्ञानोपघात है।
७. दर्शनोपघात - दर्शन (समकित) में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा करना दर्शनोपघात कहलाता है। शंकादि से समकित मलीन हो जाती है। शंकादि समकित के पाँच दूषण हैं। इनकी विस्तृत व्याख्या पांचवें ठाणे में पूर्व में दे दी गई है।
८. चारित्रोपघात - आठ प्रवचन माता अर्थात् पांच समिति और तीन गुप्ति में किसी प्रकार का दोष लगाने से संयम रूप चारित्र का उपघात होता है। अतः यह चारित्रोपघात कहलाता है। .. ९. अचियत्तोपघात (अप्रीतिकोपघात) - गुरु आदि में पूज्य भाव न रखना तथा उनकी विनय भक्ति न करना अचियत्तोपघात (अप्रीतिकोपघात) कहलाता है।
१०. संरक्षणोपपात - परिग्रह से निवृत्त साधु को वस्त्र, पात्र तथा शरीरादि में मूर्छा (ममत्व) भाव रखना संरक्षणोपघात कहलाता है।
विशुद्धि दस- संयम में किसी प्रकार का दोष न लगाना विशुद्धि है। उपरोक्त दोषों के लगने से जितने प्रकार का उपषात बताया गया है, दोष रहित होने से उतने ही प्रकार की विशुद्धि है। उसके नाम इस प्रकार है - १. उद्गम विशुदि २. उत्पादना विराति ३. एषणा विशनि ४. परिकर्म विशुद्धि ५. परिहरणा विशुदि६. ज्ञान विशुद्धि ७. दर्शन विशुद्धि ८. चारित्र विशुद्धि ९. अधिपत्त विशुदि.१०. संरक्षण पिरामि। इनका स्वरूप उपपात से उल्टा समझना चाहिए। -
संक्लेश भार भसक्लेश . - वसबिहे संकिलेसे पण्णते तंजहा - उवहि सकिलेले, उबस्सपकिलेसे,
पाणसाका णिसाकलसबरसाकलम, कापसा णाणसाकलसे, सणसांकलेस, परितसकिलसे । वसाह भसाकलेसे पण्णत तजहाउवहि असंकिलेसे जाव चरित्त असंकिलेसे ।
- बल - दसविहे बले पण्णते तंजहा - सोइंदियबले जाव फासिंदिपवले, णाणवले, दसणवले, चरित्तवले, तवबले, वीरिषवले॥१२५॥
कसाबसाकलस,
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