SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पूर्व दिशा का अधिष्ठाता देव इन्द्र है। इसलिए इसको ऐन्द्री कहते हैं। इसी प्रकार अग्निकोण का स्वामी अग्नि देवता है। दक्षिण दिशा का अधिष्ठाता यम देवता है। नैर्ऋत्य कोण का स्वामी नैर्ऋति देव है। पश्चिम दिशा का अधिष्ठाता वरुण देव है। वायव्य कोण का स्वामी वायु देव है। उत्तर दिशा का स्वामी सोमदेव है। ईशान कोण का अधिष्ठाता ईशान देव है। अपने अपने अधिष्ठातृ देवों के नाम से ही उन दिशाओं और विदिशाओं के नाम हैं। अतएव ये गुणनिष्पन्न नाम कहलाते हैं। ऊर्ध्व दिशा को विमला कहते हैं क्योंकि ऊपर अन्धकार न होने से वह निर्मल है, अतएव विमला कहलाती है। अधो दिशा तमा कहलाती है। गाढ़ अन्धकार युक्त होने से वह रात्रि तुल्य है.अतएव इसका गुण निष्पन्न नाम तमा है। द्रव्यानुयोग ___ दसविहे दवियाणुओगे पण्णत्ते तंजहा - दवियाणुओगे, माउयाणुओगे, एगट्ठियाणुओगे, करणाणुओगे, अप्पियाणप्पियाणुओगे, भावियाभावियाणुओगे, बाहिराबाहिराणुओगे, सासयासासयाणुओगे, तहणाणाणुओगे, अतहणाणाणुओगे॥१२१॥ कठिन शब्दार्थ - दवियाणुओगे (दव्याणुओगे) - द्रव्यानुयोग, एगट्ठियाणुओगे :एकार्थिकानुयोग, करणाणुओगे - करणानुयोग, अप्पियाणप्पियाणुओगे - अर्पितानर्पितानुयोग, भावियाभावियाणुओगे - भाविताभावितानुयोग, बाहिराबाहिराणुओगे - बाह्याबाह्यानुयोग, सासयासासयाणुओगे - शाश्वताशाश्वतानुयोग, तहणाणाणुओगे - तथाज्ञानानुयोग । भावार्थ - सूत्र का अर्थ के साथ ठीक ठीक सम्बन्ध बैठाना अनुयोग कहलाता है । इसके चार भेद हैं - चरणकरणानुयोग , धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग । चरणसत्तरि करणसत्तरि अर्थात् साधुधर्म और श्रावक धर्म का प्रतिपादन करने वाले अनुयोग को चरणकरणानुयोग कहते हैं । तीर्थंकर, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चरमशरीरी आदि उत्तम पुरुषों का कथाविषयक अनुयोग धर्मकथानुयोग है । चन्द्र सूर्य आदि ग्रह नक्षत्रों की गति तथा गणित के दूसरे विषयों को बताने वाला अनुयोग गणितानुयोग कहलाता है । जिसमें जीव आदि द्रव्यों का विचार हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं । द्रव्यानुयोग दस प्रकार का कहा गया है । यथा - १. जिसमें जीवादि द्रव्यों का विचार किया गया हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं । २. मातृकानुयोग उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन पदों को मातृकापद कहते हैं। इन्हें जीवादि द्रव्यों में घटाना मातृकानुयोग है । ३. ऐकार्थिकानुयोग - एक अर्थ वाले शब्दों का अनुयोग करना अथवा समान अर्थ वाले शब्दों की व्युत्पत्ति द्वारा वाच्यार्थ में संगति बैठाना एकार्थिकानुयोग है । ४. करणानुयोग - करण अर्थात् क्रिया के प्रति साधक कारणों का विचार करना करणानुयोग है । ५. अर्पितानर्पितानुयोग - विशेषण सहित वस्तु को यानी विशेष को अर्पित कहते हैं और विशेषण रहित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy