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________________ ३०० श्री स्थानांग सूत्र किसी प्रकार का भय होने पर अथवा निर्भय होने पर भी अस्वाध्याय माना गया है । दूसरे राजा के गद्दी पर बैठ जाने पर और शहर में निर्भय की घोषणा हो जाने पर भी एक दिन रात तक अस्वाध्याय रहता है । अतः उस समय तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । ग्राम के किसी प्रतिष्ठित पुरुष की या अधिकार सम्पन्न पुरुष की अथवा शय्यातर की और अन्य किसी पुरुष की भी उपाश्रय से सात घरों के अन्दर मृत्यु हो जाय तो एक दिन रात तक अस्वाध्याय रहता है । अर्थात् स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । यहाँ पर किसी किसी आचार्य का यह भी मत है कि ऐसे समय में स्वाध्याय बन्द करने की आवश्यकता नहीं है किन्तु धीरे धीरे मन्द स्वर से स्वाध्याय करना चाहिए, उच्च स्वर से नहीं क्योंकि उच्च स्वर से स्वाध्याय करने पर लोक में निन्दा होने की सम्भावना रहती है । ९. राजविग्रह - राजा, सेनापति, ग्राम का ठाकुर या किसी बड़े प्रतिष्ठित पुरुष के आपसी मल्लयुद्ध होने पर या दूसरे राजा के साथ संग्राम होने पर अस्वाध्याय माना गया है । जिस देश में जितने समय तक राजा आदि का संग्राम चलता रहे तब तक अस्वाध्याय काल माना गया है। १०. मृत औदारिक शरीर - उपाश्रय के समीप में अथवा उपाश्रयं के अन्दर मनुष्य आदि का मृत औदारिक शरीर पड़ा हुआ हो तो एक सौ (१००) हाथ तक अस्वाध्याय माना गया है। ___ पञ्चेन्द्रिय जीवों का समारम्भ यानी हिंसा नहीं करने वाले को दस प्रकार का संयम होता है यथा - वह उस जीव को श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी सुख से वञ्चित नहीं करता है तथा उसे श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करवाता है। इसी तरह चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी सुख से वञ्चित नहीं करता है और उसे इन इन्द्रियाँ सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करवाता है। इसी प्रकार असंयम भी कह देना चाहिए अर्थात् पञ्चेन्द्रिय जीवों का समारम्भ करने वाले पुरुष को दस प्रकार का असंयम होता है। वह उस जीव को पांचों इन्द्रियों सम्बन्धी सुख से वञ्चित करता है और उसे पांचों इन्द्रियाँ सम्बन्धी दुःख की प्राप्ति करवाता है । विवेचन - भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशक ७ में 'गजिते' के स्थान पर 'गह गजिअ पाठ है जिसका अर्थ है - ग्रहों की गति के कारण आकाश में होने वाली कड़कड़ाहट या गर्जना। मेघों से आच्छादित या अनाच्छादित आकाश के अन्दर व्यन्तर देवता कृत महान् गर्जने की ध्वनि होना निर्घात कहलाता है। अस्वाध्यायों का अधिक विस्तार व्यवहार सूत्र भाष्य और नियुक्ति उद्देशक ७ से जानना चाहिए। दस सूक्ष्म, महानदियाँ दस सुहमा पण्णत्ता तंजहा - पण्णसुहुमे, पणगसूहुमे, बीयसुहुमे, हरियसुहमे, पुष्फसुहुमे, अंडसुहमे, लयणमूहमे, सिणेहसूहमे, गणियसुहुमे, भंगसुहुमे । जंबूमंदर दाहिजेणं गंगासिंधुमहाणईओ दस महाणईओ समप्येति तंजहा - जउणा, सरऊ, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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