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________________ स्थान ९ २८१ के यहाँ निर्मल शंख के समान सफेद चार दांत वाला हस्तिरत्न उत्पन्न हुआ है। इसलिए हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम विमलवाहन होवे । तब देवसेन राजा का तीसरा नाम विमलवाहन होगा । तब वह विमलवाहन राजा तीस वर्ष तक गृहस्थवास में रह कर माता-पिता के देवलोक चले जाने पर बड़े पुरुषों की आज्ञा लेकर शरद ऋतु में प्रधान मोक्ष मार्ग में संबुद्ध होंगे यानी दीक्षा लेने का विचार करेंगे । तब वें बारह महीने तक वर्षीदान देंगे। वर्षीदान की समाप्ति पर • जीतकल्प वाले लोकान्तिक देव इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, उदार, कल्याणकारी, धन्य, निरुपद्रवकारी मङ्गलकारी, शोभनीय वचनों से प्रशंसा करते हुए एवं स्तुति करते हुए सम्बोधित करेंगे । यानी दीक्षा लेने की प्रार्थना करेंगे । तब वे महापद्म शतद्वार नगर के बाहर सुभूमिभाग उदयान में एक देवदूष्य वस्त्र लेकर मुण्डित होकर गृहस्थवास को छोड़ कर दीक्षा लेंगे। वे भगवान् बारह वर्ष और साढ़े छह महीने तक शरीर पर किञ्चिन्मात्र ममत्व न रखते हुए परीषह उपसर्गादि को सहन करेंगे। वे भगवान् जिस दिन मुण्डित होकर दीक्षा लेंगे। उसी दिन ऐसा अभिग्रह धारण करेंगे कि देवता सम्बन्धी मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी जो कोई उपसर्ग उत्पन्न होंगे उन सब को समभाव पूर्वक सहन करूंगा, खमूंगा अर्थात् क्रोध नहीं करूंगा, अदीन भाव से सहन करूंगा और विचलित न होते हुए सहन करूंगा । - तत्पश्चात् वे भगवान् ईर्यासमिति युक्त भाषा समिति युक्त यावत् इन्द्रियों का गोपन करने वाले ब्रह्मचारी ममत्वभाव रहित अकिञ्चन बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित निरुपलेप कांस्यपात्री के समान स्नेह रहित यावत् भली प्रकार घृतादि की आहूति दी हुई अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान होंगे । इस प्रकार श्री आचारान सू के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का जैसा वर्णन किया है वैसा सारा अधिकार यहाँ कह देना चाहिए । अब दो गाथाओं द्वारा भगवान् के गुणों का वर्णन किया जाता है - - कांस्यपात्र के समान निरुपलेप, शंख के समान निर्मल, जीव के समान अप्रतिहत गति वाले, · आकाश के समान निरावलम्बन, वायु के समान अप्रतिबद्ध, शरद ऋतु के जल के समान निर्मल मन वाले, कमल पत्र के समान निरुपलेप, कच्छुए के समान गुप्तेन्द्रिय, पक्षी के समान अनियतवास वाले, खड्ग यानी गेंडे के सींग की तरह अकेला यानी रागद्वेष रहितं, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमादी, हाथी के समान शूरवीर, वृषभ के समान धीर, सिंह के समान साहसिक यानी परीषह उपसर्गों से पराजित न .सब तीर्थकर स्वयंबुद्ध होते हैं इसलिए उनको किसी के बोध की आवश्यकता नहीं रहती है। वर्षीदान देने के बाद "अब मैं दीक्षा अंगीकार करूं" ऐसा विचार करने पर लोकान्तिक देव अपना जीत कल्प (परम्परागत व्यवहाररीति) पूरा करने के लिए तीर्थकर भगवान् की सेवा में उपस्थित होकर निवेदन करते हैं कि - "हे भगवन् अब आप धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति करें अर्थात् धर्म तीर्थ प्रवरतावें"। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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