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________________ २४४ श्री स्थानांग सूत्र के लिए, विसोहयाए - आत्म विशुद्धि के लिए, आयारगोयरगहणयाए - आचार तथा गोचरी संबंधी ज्ञान ग्रहण करने के लिए, वेयावच्चकरणयाए - वैयावच्च करने के लिए, अणिस्सिओवस्सिओरागद्वेष रहित, अपक्खग्गाही - अपक्षग्राही । भावार्थ - नीचे लिखी आठ बातें अगर प्राप्त न हों तो प्राप्त करने के लिए कोशिश करनी चाहिए अगर प्राप्त हों तो उनकी रक्षा के लिए अर्थात् वे नष्ट न हो जाय, इसके लिये प्रयत्न करना चाहिए, पराक्रम करना चाहिए और इस विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए । वे आठ बातें ये हैं - १. शास्त्र की जिन बातों को या जिन सूत्रों को न सुना हो उन्हें सुनने के लिए उदयम करना चाहिए । २. सुने हुए शास्त्रों को हृदय में जमा कर उनकी स्मृति को स्थायी बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । ३. संयम द्वारा पाप कर्मों को रोकने की कोशिश करनी चाहिए । ४. तप के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करते हुए आत्म विशुद्धि के लिए यत्न करना चाहिए । ५. नये शिष्यों का संग्रह करने के लिए कोशिश करनी चाहिए । ६. नये शिष्यों को साधु का आचार तथा गोचरी सम्बन्धी ज्ञान आदि सिखाने में प्रयत्न करना चाहिए । ७. ग्लान अर्थात् बीमार साधु की वैयावच्च अग्लान भाव से करने के लिए यत्न करना चाहिए । ८. साधर्मियों में विरोध होने पर रागद्वेष रहित तथा पक्षपात रहित होकर मध्यस्थ भाव रक्खे और दिल में यह भावना करे कि किस तरह ये सब साधर्मिक जोर जोर से बोलना असम्बद्ध प्रलाप तथा 'तू तू मैं मैं' वाले शब्द छोड़ कर शान्त, स्थिर तथा प्रेम वाले होवें । हर तरह से उनका कलह दूर करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। उच्चत्वमान, वादि सम्पदा महासुक्क सहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसयाई उ उच्चणं पण्णत्ता । अरहओ णं अरिट्ठणेमिस्स अट्ठसयावाईणं सदेव मणुयासुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्या । Jain Education International केवलि समुद्घात अट्ठसमइए केवल समुग्धाए पण्णत्ते तंजहा - पढमे समए दंड करेइ, बीए समए कवाडं करेइ, तईए समए मंथाणं करेइ, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समए लोगं पडिसाहरइ, छट्टे समए मंर्थ पडिसाहरड़, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्टमे समए दंड पडिसाहरइ ॥ ९९ ॥ 1 कठिन शब्दार्थ - अट्ठसमइए - आठ समय, दंडं दण्ड, कवाडं कपाट, मंथाणं - मथानी, पडिसाहरइ - साहरण करता है । भावार्थ - महाशुक्र और सहस्रार अर्थात् सातवें और आठवें देवलोक में विमान आठ सौ योजन - - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004187
Book TitleSthananga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size8 MB
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