________________
श्री स्थानांग सूत्र
और समवायांग। दस वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति अर्थात् भगवती सूत्र पढ़ाना चाहिए। ग्यारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को खुड़ियविमाणपविभत्ति (क्षुल्लकविमानप्रविभक्ति), महल्लयाविमाणपविभत्ति (महद्विमानप्रविभक्ति), अंगचूलिया, बंगचूलिया और विवाहचूलिया ये पांच सूत्र पढ़ाने चाहिए। बारह वर्ष वाले को अरुणोववाए (अरुणोपपात), वरुणोववाए (वरुणोपपात), गरुलोववाए (गरुडोपपात), धरणोववाए (धरणोपपात) और वेसमणोववाए (वैश्रमणोपपात)। तेरह वर्ष वाले को उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, नागपरियावलिआठ और निरयावलिआठ ये चार सूत्र। चौदह वर्ष वाले को आशीविषभावना और पन्द्रह वर्ष वाले को दृष्टिविषभावना। सोलह सतरह और अठारह वर्ष वाले को क्रम से चारणभावना, महास्वप्नभावना और तेजोनिसर्ग पढ़ाना चाहिए। उन्नीस वर्ष वाले को दृष्टिवाद नाम का बारहवां अंग और बीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर सभी श्रुतों को पढ़ने का वह अधिकारी हो जाता है। इन सूत्रों को पढ़ाने के लिए यह नियम नहीं है कि इतने वर्ष की दीक्षापर्याय के बाद ये सूत्र अवश्य पढ़ाये जायं, किन्तु योग्य साधु को इतने समय के बाद ही विहित सूत्र पढ़ाना चाहिए। ____ नोट - आचार्य या उपाध्याय किसी साधु को विशेष बुद्धिमान् और योग्य समझ कर यथावसर सूत्र आदि पढ़ा सकते हैं। उपरोक्त सूत्रों में से अंगचूलिया, बंगचूलिया आदि सूत्र उपलब्ध नहीं होते हैं। यहां पर जो दीक्षापर्याय का नियम बतलाया गया है वह भी सब जगह लागू नहीं होता है क्योंकि अन्तगड आदि सूत्रों में थोड़े वर्षों की दीक्षा पर्याय वाले अनगारों के ग्यारह अङ्ग तथा सम्पूर्ण बारह अङ्ग पढने का उल्लेख मिलता है।
४. आचार्य तथा उपाध्याय को बीमार, तपस्वी तथा विद्याध्ययन करने वाले साधुओं की वैयावच्च का ठीक प्रबन्ध करना चाहिए। यह चौथा संग्रहस्थान है। .... ५. आचार्य तथा उपाध्याय को दूसरे साधुओं से पूछ कर काम करना चाहिए, बिना पूछे नहीं। अथवा शिष्यों से दैनिक कृत्य के लिए पूछते रहना चाहिए कि तुमने आज कितना नया ज्ञान सीखा, । कितना स्वाध्याय किया आदि। यह पांचवां संग्रहस्थान है।
६. आचार्य तथा उपाध्याय को अप्राप्त आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति के लिए सम्यक् प्रकार व्यवस्था करनी चाहिए। अर्थात् जो वस्तुएं आवश्यक हैं और साधुओं के पास नहीं हैं उनकी निर्दोष प्राप्ति के लिए यत्न करना चाहिए। यह छठा संग्रह स्थान है।
७. आचार्य तथा उपाध्याय को पूर्वप्राप्त उपकरणों की रक्षा का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें ऐसे स्थान में न रखने देना चाहिए जिस से वे खराब हो जायं या चोर वगैरह ले जायं। यह सातवां संग्रहस्थान है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org