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आभ्यन्तर तप - जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। वह आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है यथा - १. प्रायश्चित्त जिससे मूलगुण और उत्तरगुण विषयक अतिचारों से मलिन आत्मा शुद्ध हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा प्रायः का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है शुद्धि | जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । २. विनय- आठ कर्मों को आत्मा से अलग करने में हेतु रूप क्रिया विशेष को विनय कहते हैं। अथवा सम्माननीय गुरुजनों के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, उनकी सेवा शुश्रूषा करना आदि विनय कहलाता है। ३. वैयावृत्य धर्म साधन के लिए गुरु, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना वैयावृत्य कहलाता है । ४. स्वाध्याय अस्वाध्याय काल टाल कर मर्यादापूर्वक शास्त्रों को पढ़ना, पढाना आदि स्वाध्याय है । ५. ध्यान आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान को छोड़ कर धर्म ध्यान और शुक्ल . ध्यान करना ध्यान तप कहलाता है। ६. व्युत्सर्ग- ममता का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
विवाद- तत्त्व निर्णय या जीतने की इच्छा से वादी और प्रतिवादी का आपस में शङ्का समाधान करना विवाद कहलाता है । इसके छह भेद हैं यथा १. अवसर के अनुसार पीछे हट कर अर्थात् विलम्ब करके विवाद करना । २. उत्सुक होकर विवाद करना । ३. मध्यस्थ को अपने अनुकूल बना कर अथवा प्रतिवादी के मत को अपना मत मान कर उसी को पूर्वपक्ष करते हुए विवाद करना । ४. समर्थ होने पर सभापति और प्रतिवादी दोनों के प्रतिकूल होने पर भी विवाद करना । ५. सभापति को प्रसन्न करके एवं अपने अनुकूल बना कर विवाद करना । ६. किसी उपाय से निर्णायकों को प्रतिपक्षी का द्वेषी बना कर अथवा उन्हें स्वपक्षग्राही बना कर विवाद करना ।
श्री स्थानांग सूत्र
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विवेचन अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस परित्याग, कायाक्लेश, प्रतिसंलीनता, ये छह प्रकार के तप मुक्ति प्राप्ति के बाह्य अंग हैं। ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं, प्रायः बाह्य शरीर को ही तपाते हैं अर्थात् इनका शरीर पर अधिक असर पड़ता है। इन तपों का करने वाला भी लोक में तपस्वी रूप से प्रसिद्ध हो जाता है। अन्यतीर्थिक भी स्वाभिप्रायानुसार इनका सेवन करते हैं। इत्यादि कारणों से ये तप बाह्य तप कहे जाते हैं। जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो उसे आभ्यंतर तप कहते हैं। इसके छह भेद हैं - १. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५.. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग। आभ्यंतर तप मोक्ष प्राप्ति में अंतरंग कारण है। अर्न्तदृष्टि आत्मा ही इसका सेवन करता है और वही इन्हें तप रूप से जानता है। इनका असर बाह्य शरीर पर नहीं पड़ता किन्तु आभ्यन्तर राग द्वेष कषाय आदि पर पड़ता है। लोग इसे देख नहीं सकते। इन्हीं कारणों से उपरोक्त छह प्रकार की क्रियाएं आभ्यन्तर तप कही जाती है।
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तप के भेदों का विशेष वर्णन उववाई सूत्र ( तप अधिकार) तथा उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३० एवं भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ७ से जान लेना चाहिये ।
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