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स्थान ५ उद्देशक ३
अवयवों से मैल आदि दूर करने वाला, दाँत साफ करने वाला, केश सँवारने वाला, इस प्रकार काय रहित साधु शरीर-कुश है।
उपकरण बकुश - विभूषा के लिये अकाल में चोलपट्टा आदि धोने वाला, धूपादि देने वाला, पात्र दण्ड आदि को तैलादि लगा कर चमकाने वाला साधु उपकरण बकुश है।
दोनों प्रकार के साधु प्रभूत वस्त्र पात्रादि रूप ऋद्धि और यश के कामी होते हैं। ये सातागारव वाले होते हैं और इसलिये रात दिन के कर्त्तव्य अनुष्ठानों में पूरे सावधान नहीं रहते। इनका परिवार भी संयम से पृथक् तैलादि से शरीर की मालिश करने वाला, कैंची से केश काटने वाला होता है। इस प्रकार इनका चारित्र सर्व या देश रूप से दीक्षा पर्याय के छेद योग्य अतिचारों से मलीन रहता है।
३. कुशील - उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला साधु कुशील कहा जाता है। कुशील के दो भेद हैं -
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१. प्रतिसेवना कुशील २. कषाय कुशील।
४. निर्ग्रन्थ- ग्रन्थ का अर्थ मोह है। मोह से रहित साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है । उपशान्त मोह और क्षीण मोह के भेद से निर्ग्रन्थ के दो भेद हैं।
५. स्नातक - शुक्लध्यान द्वारा सम्पूर्ण घाती कर्मों के समूह को क्षय करके जो शुद्ध हुए हैं वे स्नातक कहलाते हैं। सयोगी और अयोगी के भेद से स्नातक भी दो प्रकार के होते हैं।
उपरोक्त पांच निर्ग्रन्थों के भेद प्रभेदों का वर्णन भावार्थ से स्पष्ट है। भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ६ में भी पांच निर्ग्रन्थों का विस्तृत विवरण दिया गया है।
वस्त्र और रजोहरण
कप्पड़ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा पंच वत्थाइं धारितए वा परिहरित्तए वा तंजहा - जंगिए, भंगिए, साणए, पोत्तिए, तिरीडपट्टए णामं पंचमए । कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा पंच रयहरणाई धारितए वा परिहरित्तए वा तंजहा - उणिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्वियए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए ॥ ३२ ॥
पहनना, कप्पड़ कल्पता है, जंगिएसाणक-सन का बना हुआ, पोत्तिए -
कठिन शब्दार्थ - धारितए - धारण करना, परिहरित्तए जांगमिक, भंगिए - भांगिक- अलसी का बना हुआ, साणए पोतक - कपास का बना हुआ, तिरीडपट्टए - तिरीडपट्ट-वृक्ष की छाल का बना हुआ, रयहरणाई - रजोहरण, उण्णिए - और्णिक-ऊन का, उट्टिए - औष्ट्रिक-ऊंट के रोम से बना, पच्चापिच्चियए - बल्वज-नरम घास का बना हुआ, मुंजापिच्चिए - कूट कर नरम बनाई हुई मुंज का बना हुआ ।
भावार्थ साधु और साध्वी को पांच प्रकार के वस्त्र ग्रहण करना और पहनना कल्पता है यथा
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