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स्थान २ उद्देशक १
शिरा से बंधा हुआ, विग्गहगइसमावण्णगाणं - विग्रह गति समापनक, णिरंतरं - निरन्तर, रागेण - राग से, दोसेण - दोष से, सरीरुप्पत्ती - शरीर की उत्पत्ति, दुट्ठाण णिव्वत्तिए - दो कारणों से निर्वर्तित, रागणिव्यत्तिए - राग निर्वर्तित, दोस णिव्वत्तिए - दोष निर्वर्तित, भवसिद्धिए - भवसिद्धिक, अभवसिद्धिए - अभवसिद्धिक। - भावार्थ - काल दो प्रकार का कहा गया है यथा - अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल। आकाश दो प्रकार का कहा गया है यथा - लोकाकाश और अलोकांकाश। नैरयिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं यथा - आभ्यन्तर यानी जीव प्रदेशों के साथ क्षीरनीर की तरह मिला हुआ तैजस
और कार्मण। बाह्य - बाहरी यानी जीव प्रदेशों के साथ न मिला हुआ ऐसा वैक्रिय शरीर। आभ्यंतर शरीर काण नामकर्म के उदय से बना हुआ होता है जो संसारी जीवों के सदा साथ लगा रहता है और बाहरी वैक्रियशरीर। इसी प्रकार देवों के लिए भी कहना चाहिए। पृथ्वीकायिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं यथा - आभ्यन्तर और बाहरी। आभ्यन्तर शरीर तैजस कार्मण और बाहरी औदारिक शरीर नामकर्म के उदय से बना हुआ हाड मांस युक्त औदारिक शरीर। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक दो दो शरीर हैं। बेइन्द्रिय जीवों के दो शरीर कहे गये हैं यथा - आभ्यन्तर और बाहरी। आभ्यन्तर शरीर तैजस कार्मण और बाहरी शरीर हड्डी, मांस, लोहू से युक्त औदारिक शरीर। यावत् तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के भी इसी प्रकार जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों के दो शरीर कहे गये हैं यथा - आभ्यन्तर और बाहरी। आभ्यन्तर शरीर तैजस कार्मण हैं और बाहरी शरीर हड्डी, मांस, रुधिर नाड़ी और शिरा से बंधा हुआ औदारिक शरीर है। मनुष्यों के भी इसी तरह का शरीर जानना चाहिए। विग्रह गति में रहे हुए नैरयिक जीवों के दो शरीर कहे गये हैं यथा - तैजस और कार्मण। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डकों में ये दोनों शरीर निरन्तर रहते हैं। राग से और द्वेष से इन दो कारणों से नैरयिकों के शरीर की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डक के जीवों के शरीर की उत्पत्ति राग और द्वेष से होती है। नैरयिक जीवों का शरीर दो कारणों से निर्वर्तित यानी पूर्ण होता है ऐसा कहा गया है जैसे कि राग निर्वर्तित और द्वेष निर्वर्तित । यावत् वैमानिक देवों तक इसी प्रकार जानना चाहिए। दो काया कही गई है यथा - त्रसकाय और स्थावरकाय। त्रसकाय दो प्रकार की कही गई है यथा - भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक। इसी प्रकार स्थावरकाय के भी भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक ये दो भेद हैं। शरीर की रचना का आरम्भ होना उत्पत्ति कहलाती है और शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का पूर्ण हो जाना निर्वर्तना कहलाती है। .. विवेचन - जो प्रतिक्षण चय(वृद्धि) और अपचय(हानि) से जीर्ण शीर्ण होता है, नाश को प्राप्त करता है। जो सडन गलन आदि स्वभाव से अनुकंपन रूप है जिसका निर्माण शरीर नामकर्म के उदय से होता है, उसे शरीर कहते हैं। शरीर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है
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