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श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कारण हो उसे भव प्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे - नारकी और देवताओं को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, २. क्षायोपशमिक अवधिज्ञान - ज्ञान, तप आदि कारणों से मनुष्य और तिर्यंचों को जो अवधिज्ञान होता है उसे क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहते हैं। इसे गुण द्रव्य या लब्धि प्रत्यय भी कहा जाता है। ___ मनःपर्यवज्ञान के दो भेद हैं -
१. ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान - दूसरे के मन में सोचे हुए भावों को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है। जैसे अमुक व्यक्ति ने घड़ा लाने का विचार किया है।
२. विपुलमति मनःपर्यवज्ञान - दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ के विषय में विशेष रूप से जानना विपुलमति मनःपर्यवज्ञान है। जैसे अमुक ने जिस घडे को लाने का विचार किया है वह घडा अमुक रंग का अमुक आकार वाला और अमुक समय में बना है। इत्यादि विशेष पर्यायों अवस्थाओं को जानना।
परोक्षज्ञान के दो भेद हैं - १. आभिनिबोधिक ज्ञान और २. श्रुतज्ञान ।
१. आभिनिबोधिक ज्ञान - पांचों इन्द्रियों और मन के द्वारा योग्य देश में रहे हुए, पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान कहलाता है।
२. श्रुतज्ञान - शास्त्रों को सुनने और पढने से इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान है। अथवा मतिज्ञान के बाद में होने वाले एवं शब्द तथा अर्थ का विचार करने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे 'घट' शब्द सुनने पर उसके बनाने वाले का उसके रंग और आकार आदि का विचार करना। ____ आभिनिबोधिकज्ञान दो प्रकार का कहा गया है - १. श्रुतनिश्रित - श्रुत के आश्रित जो ज्ञान है वह श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। अर्थावग्रह आदि रूप ज्ञान श्रुतनिश्रित है, २. अश्रुतनिश्रित - मतिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से औत्पत्तिकी आदि बुद्धि रूप जो ज्ञान उत्पन्न होता है अथवा श्रोत्रेन्द्रिय आदि से होने वाला ज्ञान अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है।
- श्रुतनिश्रित के दो भेद हैं - १. अर्थावग्रह - पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं अर्थावग्रह में पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का ज्ञान होता है। इसकी स्थिति एक समय की है। ...
२. व्यञ्जनावग्रह - अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है अर्थात् अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञान व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। दर्शन के बाद व्यञ्जनावग्रह होता है। यह चक्षु और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से ही होता है। इसकी जघन्य स्थिति आवलिका के असंख्यातवें भाग की है और उत्कृष्ट दो से नौ श्वासोच्छ्वास तक है।
श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है - १. अंगप्रविष्ट-श्रुतज्ञान - जिन आगमों में गणधरों ने
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