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एवं चरण करण परूवणया आघविज्जंति, पण्णविज्जंति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति, णिदंसिज्जंति, उवदंसिज्यंति, से तं ठाणे ॥ ३ ॥
भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन्! स्थानाङ्ग किसे कहते हैं अर्थात् स्थानाङ्ग सूत्र में क्या वर्णन किया गया ? गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि स्थानाङ्ग सूत्र में स्वसमय - स्वसिद्धान्त, पर सिद्धान्त, स्वसमयपरसमय की स्थापना की जाती है। जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक की स्थापना की जाती है। जीवादि पदार्थों की स्थापना से द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों की स्थापना की जाती है।
पर्वत, महा नदियाँ, समुद्र, देव, असुरकुमार आदि के भवन विमान, आकर-खान, सामान्य नदियाँ, निधियाँ, पुरुषों के भेद, स्वर, गोत्र, ज्योतिषी देवों का चलना इत्यादि का एक से लेकर दस भेदों तक का वर्णन किया गया है। लोक में स्थित जीव और पुद्गलों की प्ररूपणा की गई है। स्थानाङ्ग सूत्र की परित्ता वाचना हैं, संख्याता अनुयोगद्वार, संख्याता प्रतिपत्तियाँ, संख्याता वेढ नामक छन्द विशेष, संख्याता श्लोक और संख्याता संग्रहणियाँ हैं। अंगों की अपेक्षा यह स्थानाङ्ग सूत्र तीसरा अंग सूत्र है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन २१ उद्देशे, ७२ हजार पद कहे गये हैं । संख्याता अक्षर, अनन्ता गम, अनन्ता पर्याय, परित्ता त्रस, अनन्ता स्थावर हैं ।
तीर्थङ्कर भगवान् द्वारा कहे हुए ये पदार्थ द्रव्य रूप से शाश्वत हैं, प्रर्याय रूप से कृत हैं, सूत्र रूप में गूंथे हुए होने से निबद्ध हैं, निर्युक्ति हेतु उदाहरण द्वारा भली प्रकार कहे गये हैं । स्थानाङ्ग सूत्र के ये भाव तीर्थङ्कर भगवान् द्वारा सामान्य और विशेष रूप से कहे गये हैं, नामादि के द्वारा कथन किये गये हैं स्वरूप बतलाया गया है, उपमा आदि के द्वारा दिखलाये गये हैं, हेतु और दृष्टान्त आदि के द्वारा विशेष रूप से दिखलाये गये हैं। उपनय और निगमन के द्वारा एवं सम्पूर्ण नयों के अभिप्राय से बतलाये गये हैं। इस प्रकार स्थानाङ्ग सूत्र को पढ़ने से आत्मा ज्ञाता और विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरणसत्तरि करणसत्तरि आदि की प्ररूपणा से स्थानाङ्ग सूत्र के भाव कहे गये हैं, विशेष रूप से कहे गये हैं एवं दिखलाये गये हैं। स्थानाङ्ग सूत्र का संक्षिप्त विषय बतलाया गया है॥ ३॥
इस आगम पर गहनता से चिंतन करने पर एक बात परिलक्षित होती है कि इसमें किसी भी विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी है। संख्या के आधार पर ही इस आगम का निर्यण हुआ है। इसमें एक-एक की संख्या से सम्बन्धित तमाम विषयों के बोलों को प्रथम स्थान में निरूपित किया है। वह चाहे जीव, अजीव, इतिहास, गणित, खगोल, भूगोल, दर्शन, आचार आदि किसी से भी सम्बन्धित क्यों न हो, इसी शैली का अनुसरण शेष दूसरे तीसरे यावत् दशवे स्थान वाले बोलों के लिए किया गया है। यद्यपि प्रस्तुत आगम में किसी भी एक विषय की विस्तृत व्याख्या नहीं हैं। फिर भी संख्या की दृष्टि से शताधिक विषयों का जिस प्रकार से इसमें संकलन
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