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- स्थान ४ उद्देशक ४
समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात । इसी तरह वायुकायिक जीवों के भी उपरोक्त चार समुद्घात होते हैं । अरिहन्त भगवान् अरिष्टनेमिनाथ के उत्कृष्ट चार सौ चौदह पूर्वधारी मुनि थे । वे चौदह पूर्वो के धारकं सब अक्षरों के संयोगों को जानने वाले जिन यानी सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ के समान थे । वे सर्वज्ञ के समान यथातथ्य वचन बोलने वाले और प्रश्नों का ठीक उत्तर देने वाले होते हैं । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उत्कृष्ट चार सौ वादियों की संपत्ति थी। देव मनुष्य और असुरों की सभा में उन वादियों को कोई जीत नहीं सकता था ।
. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र ये नीचे के चार देवलोक अर्द्ध चन्द्र के आकार वाले हैं । ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार ये बीच के चार देवलोक पूर्ण चन्द्रमा के आकार वाले कहे गये हैं । आणत, प्राणत, आरण और अच्युत । ये ऊपर के चार देवलोक अर्ध चन्द्राकार हैं । चार समुद्र प्रत्येक रस यानी भिन्न भिन्न स्वाद के जल वाले हैं यथा - लवण समुद्र, इसका जल लवण-नमक के समान खारा है । वरुणोदक, इसका जल मदिरा जैसा है । क्षीरोदक, इसका जल दूध जैसा है। घृतोदक, इसका जल घी जैसा है । इन चारों समुद्रों के जल का स्वरूप जल सरिखा ही है किन्तु उस जल का स्वाद क्रमशः खारा, वारुणी नामक मदिरा जैसा कुछ मीठा, दूध और घी जैसा होता है। चार प्रकार के आवर्त यानी पानी का चक्कर कहे गये हैं यथा - खरावर्त यानी कठोर आवर्त्त, उन्नतावर्त, गूढावर्त और आमिषावर्त यानी मांस के लिए शिकारी लोग जो घेरा डाल कर बैठते हैं उसके समान आवर्त । इसी तरह चार प्रकार के कषाय कहे गये हैं यथा - खरावर्त के समान क्रोध है । उन्नतावर्त के समान मान है । गूढावर्त के समान माया है । आभिषावर्त के समान लोभ है । खरावर्त के समान क्रोध करने वाला जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है। उन्नतावर्त के समान मान करने वाला जीव तथा गूढावर्त समान माया करने वाला जीव और आमिषावर्त्त समान लोभ करने वाला जीव यदि काल करे तो नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ।
विवेचन - चौदह पूर्वो में उत्पाद नाम का प्रथम पूर्व है। जिसकी चार चूलिका वस्तु यानी अध्ययन विशेष कहे गये हैं। उत्पाद पूर्व का एक अंग काव्य है अतः आगे के सूत्र में काव्य का वर्णन किया गया है। . समुद्घात शब्द का अर्थ है - वेदना आदि के साथ तन्मय हो कर मूल शरीर को छोड़े बिना प्रबलता से आत्म-प्रदेशों को शरीर अवगाहना से बाहर निकाल कर असाता वेदनीय आदि कर्मों का क्षय करना समुद्घात कहलाता है। अथवा कालान्तर में उदय में आने वाले कर्म पुद्गलों को उदीरणा द्वारा उदय में लाकर उनकी प्रबलता पूर्वक निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। इसके सात भेद हैं - १. वेदनीय २. कषाय ३. मारणांतिक ४. वैक्रिय ५. तैजस् ६. आहारक और .७. केवली। यहां नैरयिक जीवों में और वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात कहे गये हैं - १. वेदना २. कषाय ३. मारणान्तिक और ४. वैक्रिय। समुद्घात का विशेष वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के ३६ वें पद में किया गया है।
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