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________________ ४२२ श्री स्थानांग सूत्र कोई एक साधु दुर्बल शरीर वाला भी नहीं है और विशुद्ध आत्मा वाला भी नहीं है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। यथा - कोई एक साधु बुद्ध यानी सत्क्रिया करने से पण्डित है और विवेक युक्त मन रखने से पण्डित है। कोई एक साधु सत्क्रिया करने से पण्डित है किन्तु विवेक रहित होने से अपण्डित है। कोई एक साधु सक्रिया रहित होने से अपण्डित है किन्तु विवेक युक्त होने से पण्डित है। कोई एक साधु सक्रिया रहित होने से अपण्डित है और विवेक रहित होने से भी अपण्डित है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । यथा - कोई एक साधु पण्डित है और विवेक युक्त हृदय वाला है । कोई एक साधु पण्डित है किन्तु विवेक रहित हृदय वाला है । कोई एक साधु अपण्डित है किन्तु विवेक युक्त हृदय वाला है । कोई एक साधु अपण्डित है और विवेक रहित हृदय वाला है । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। यथा - कोई एक पुरुष अपनी ही अनुकम्पा करता है किन्तु दूसरों की अनुकम्पा नहीं करता ऐसे तीन पुरुष होते हैं - प्रत्येक बुद्ध, जिनकल्पी और दूसरों की रक्षा न करने वाला निर्दयी पुरुष । ये तीनों अपने ही हित में तत्पर रहते हैं, दूसरों का हित नहीं करते हैं। कोई एक पुरुष दूसरों की अनुकम्पा करता है किन्तु अपनी अनुकम्पा नहीं करता है ऐसे पुरुष या तो तीर्थकर होते हैं या अपनी परवाह नहीं रखने वाला मेतार्य मुनि की तरह परम दयालु पुरुष होता है। कोई एक पुरुष अपनी भी अनुकम्पा करता है और दूसरों की भी अनुकम्पा करता है । ऐसा पुरुष स्थविरकल्पी साधु होता है । क्योंकि स्थविरकल्पी साधु अपनी और दूसरे की दोनों की अनुकम्पा करता है । कोई एक पुरुष अपनी भी अनुकम्पा नहीं करता हैं और दूसरों की भी अनुकम्पा नहीं करता है । ऐसा पुरुष काल शौकरिक कसाई आदि की तरह अतिशय पापी होता है। विवेचन - एक पुरुष अपनी ही अनुकम्पा करता है किन्तु दूसरों की अनुकम्पा नहीं करता ऐसे तीन पुरुष कहे हैं - प्रत्येक दुद्ध, जिनकल्पी और दूसरों की रक्षा नहीं करने वाला निर्दयी पुरुष । प्रत्येक. बुद्ध और जिनकल्पी साधु दूसरे की अनुकम्पा नहीं करते अर्थात् दूसरे का हित नहीं करते किन्तु अपने ही हित में प्रवृत्त रहते हैं इसलिए वे प्रथम भंग के स्वामी कहे गये हैं। उनकी तरह जो दूसरे जीव की अनुकम्पा नहीं करता है वह पुरुष यदि जिनकल्पी और प्रत्येक बुद्ध नहीं है तो उसे प्रथम भंग का तीसरा स्वामी निर्दयी समझना चाहिये। दूसरे प्राणी की अनुकम्पा करना पाप है ऐसा समझ कर जो मरते हुए प्राणी की रक्षा नहीं करता है वह दयाहीन पुरुष है। उसे इस प्रथम भंग के तीसरे स्वामी निर्दयी पुरुष की श्रेणी में समझना चाहिए। इस चौभंगी में कहा गया है कि स्थाविर कल्पी साधु उभयानुकम्पी है। वह अपनी और दूसरे दोनों की अनुकम्पा करता है। अतः मरते प्राणी की प्राण रक्षा करना स्थविर कल्पी साधु का धार्मिक कर्तव्य सिद्ध होता है। जो स्थविर कल्पी साधु कहला कर दूसरे जीव की रक्षा नहीं करता वह अपने कर्तव्य से पतित होता है। वह साधु नहीं है किन्तु वह निर्दयी है। वह प्रथम भंग के तीसरे स्वामी निर्दयी पुरुष की श्रेणी में आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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