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श्री स्थानांग सूत्र .. 000000000000000000000000000000000000000000000000000
भावार्थ - चार प्रकार का सत्य कहा गया है । यथा - नाम सत्य, स्थापना सत्य, द्रव्य सत्य और भाव सत्य । आजीविक यानी गोशालक मतानुयायियों के मत में चार प्रकार का तप कहा गया है । यथा-उग्र तप, उपवास बेला, तेला, आदि घोर तप, रसनियूहनता यानी घृतादि रसों का त्याग और जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता यानी अच्छे और बुरे आहार में राग द्वेष न करना ।
चार प्रकार का संयम कहा गया है । यथा - मनसंयम, वचन संयम, काय संयम और उपकरण संयम । चार प्रकार का त्याग कहा गया है । यथा - मन त्याग, वचन त्याग, काय त्याग, उपकरण त्याग। चार प्रकार की अकिञ्चनता कही गई है । यथा - मन अकिञ्चनता, वचन अकिञ्चनता, काय अकिञ्चनता और उपकरण अकिञ्चनता ।
विवेचन - उपयोग रहित वक्ता का सत्य, द्रव्य सत्य है तथा उपयोग युक्त वक्ता का जो सत्य है वह भाव सत्य है। _आजीविक - गोशालक के शिष्यों का अट्ठम आदि तप उग्र तप, घोर-अपनी अपेक्षा रखे बिना अर्थात् अपने शरीर की चिंता किये बिना किया जाने वाला तप, घृतादि रस त्याग रूप तप और जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-मनोज्ञ या अमनोज्ञ आहार के विषय में राग द्वेष का त्याग, यह चार प्रकार. का तप है जब कि अरिहंत के शिष्यों का तप बारह प्रकार का है मन, वचन और काया के अकुशल पन का मिरोध रूप और कुशलपन में प्रवृत्ति करने रूप मन आदि संयम है। बहुमूल्य वस्त्र आदि का त्याग करने रूप उपकरण संयम है। अशुभ मन आदि का निरोध अथवा मन आदि से साधुओं के लिए आहारादि का दान त्याग है।
_ 'उग्गतवे' की जगह किसी प्रति में 'उदारतवे ऐसा पाठ है। इसका अर्थ है - उदार तप यानी . इहलोकादि की आशंसा रहित तप।
__ जो द्रव्य और भाव परिग्रह से रहित है वह अकिंचन कहलाता है। यहाँ अकिंचनता का अर्थ निष्परिग्रहता है। यहाँ मन आदि के भेद से अकिंचनता चार प्रकार की कही गयी है।
॥इति चौथे ठाणे का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥
चतुर्थ स्थान का तृतीय उद्देशक चत्तारि उदगा पण्णत्ता तंजहा - कहमोदए, खंजणोदए, वालुओदए, सेलोदए । एवामेव चउविहे भावे पण्णत्ते तंजहा - कद्दमोदगसमाणे, खंजणोदगसमाणे,
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