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________________ ३११ स्थान ४ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 भी ईर्षा, विषाद, भय, वियोग, आदि विविध दुःखों से दुःखी हैं, इस प्रकार परलोक का स्वरूप बता कर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा परलोक संवेगनी कथा है। यह शरीर स्वयं अशुचि रूप है । अशुचि से उत्पन्न हुआ है अशुचि पदार्थों से पोषित हुआ है । अशुचि से भरा हुआ है और अशुचि को उत्पन्न करने वाला है, इत्यादि रूप से मानव-शरीर के स्वरूप को बता कर वैराग्यभाव उत्पन्न करने वाली कथा आत्मशरीर-स्वशरीरसंवेगनी कथा है । दूसरे के शरीर की अशुचिता बतला कर वैराग्यभाव उत्पन्न करने वाली कथा परशरीर संवेगनी कथा है। निर्वेदनी कथा चार प्रकार की कही गई है । यथा - इस लोक में किये हुए दुष्ट कर्म इसी लोक में दुःख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे चोरी, परस्त्री गमन आदि दुष्ट कर्म । यह पहली निर्वेदनी कथा है। इस लोक में किये हुए दुष्ट कर्म परलोक में दुःख रूप फल देते हैं । जैसे महारम्भ महापरिग्रह आदि नरक योग्य कर्मों का फल नरक में भोगना पड़ता है । यह दूसरी निर्वेदनी कथा है । परलोक में उपार्जन किये हुए अशुभ कर्म इस लोक में दुःख रूप फल देते हैं । जैसे पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्मों के फल रूप इस लोक में नीच कुल में उत्पन्न होना, बचपन से ही कोढ आदि भयंकर रोगों से पीड़ित होना, दरिद्री होना आदि । यह तीसरी निर्वेदनी कथा है । परलोक में किये हुए अशुभ कर्म परलोक में दुःख रूप फल देते हैं । जैसे पूर्वभव में किये हुए अशुभ कर्मो से जीव कौवे, गीध आदि के भव में उत्पन्न होते हैं और यहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं । यह चौथी निवेदनी कथा है । ऊपर अशुभ कर्मों की अपेक्षा निर्वेदनी कथा के चार भेद बतलाये गये हैं । अब शुभ कर्मों की अपेक्षा निर्वेदनी कथा के चार भेद बतलाये जाते हैं । इस लोक में किये हुए शुभकर्म इसी लोक में सुख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे तीर्थङ्कर भगवान् को दान देने वाले पुरुष को सुवर्णवृष्टि आदि सुख रूप फल इसी लोक में मिलता है । इस लोक में किये हुए शुभकर्म परलोक में सुख रूप फल देने वाले होते हैं। जैसे इस लोक में पाले हुए निरतिचार चारित्र का सुख रूप फल परलोक में मिलता है । परलोक में किये हुए शुभकर्म इस लोक में सुख रूप फल देने वाले होते हैं । जैसे पूर्वभव में शुभ कर्म करने वाले जीव इस भव में तीर्थङ्कर रूप से जन्म लेकर सुख रूप फल पाते हैं । परलोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक में सुख रूप फल के देने वाले होते हैं । जैसे देवभव में रहा हुआ तीर्थङ्कर का जीव पूर्वभव के तीर्थङ्कर प्रकृति रूप शुभकर्मों का फल देवभव के बाद तीर्थङ्कर जन्म में भोगेगा । विवेचन - विकथा की व्याख्या और भेद - संयम में बाधक चारित्र विरुद्ध कथा को विकथा कहते हैं। विकथा के चार भेद हैं - १. स्त्रीकथा २. भक्तकथा ३. देशकथा ४. राजकथा। चारों विकथाओं के भेदों-प्रभेदों का वर्णन भावार्थ से स्पष्ट है। चारों विकथाओं के दोष इस प्रकार हैं - ___ स्त्री कथा करने और सुनने वालों को मोह की उत्पत्ति होती है। लोक में निन्दा होती है। सूत्र और अर्थ ज्ञान की हानि होती है। ब्रह्मचर्य में दोष लगता है। स्त्रीकथा करने वाला संयम से गिर जाता है। कुलिङ्गी हो जाता है या साधु वेश में रह कर अनाचार सेवन करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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