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श्री स्थानांग सूत्र
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मोसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिधादाणाओ वेरमणं । सव्वेसु णं महाविदेहेसु अरिहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवेंति तंजहा - सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं जाव सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ॥ १३९ ॥
कठिन शब्दार्थ- पमाण काले प्रमाण काल, अहाउयणिव्वत्ति काले- यथायुर्निर्वृत्ति काल, पोग्गलपरिणामे - पुद्गलं परिणाम, पुरिमपच्छिमवज्जा प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़ कर, चाउज्जामं - चतुर्याम, बहिद्धादाणाओ - बहिर्द्धादान - बाहर की वस्तु लेना, वेरमणं - निवृत्त होना ।
भावार्थ- चार प्रकार का काल कहा गया है। यथा प्रमाण काल यानी मनुष्य क्षेत्र में होने वाला रात, दिन आदि काल विभाग । चारों गति के जीवों के जिस जिस गति का आयुष्य बांधा है उतने समय तक वहाँ रहना यथायुर्निर्वृत्ति काल है। बांधे हुए आयुष्य का समाप्त होना सो मरण काल है । और समय, आवलिका आदि अद्धा काल है। चार प्रकार का पुद्गल परिणाम कहा गया है। यथा - • वर्ण परिणाम, गन्ध परिणाम, रस परिणाम, स्पर्श परिणाम । भरत और ऐरवत इन दो क्षेत्रों में चौबीस तीर्थंकरों
प्रथम और अन्तिम इन दो तीर्थंकरों को छोड़ कर बीच के बाईस तीर्थङ्कर भगवान् चतुर्याम यानी चार महाव्रत रूप धर्म फरमाते हैं। यथा - सब प्रकार के प्राणातिपात से निवृत्त होना, सब प्रकार के मृषावाद से निवृत्त होना, सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्त होना और सब प्रकार की बाहर की वस्तु लेने से निवृत्त होना । सब महाविदेह क्षेत्रों में तीर्थङ्कर भगवान् चतुर्याम यानी चार महाव्रत रूप धर्म फरमाते हैं। यथा सब प्रकार के प्राणातिपात से यावत् सब प्रकार के बहिंर्द्धादान यानी बाहरी वस्तु लेने से निवृत्त होना ।
शब्द का
विवेचन - एक अवस्था को छोड़ कर दूसरी अवस्था को प्राप्त होना परिणाम कहलाता है । चातुर्याम धर्म का वर्णन करते हुए चौथे पांचवें महाव्रत के लिये मूल में "बहिदद्धादाण " प्रयोग किया गया है। जिसकी संस्कृत छाया होती है " बहिर्द्धादान" जिसका अर्थ है बाहरी वस्तु का आदान-ग्रहण करना। मैथुन सेवन करने की स्त्री आदि सामग्री भी बाहरी है और सोना-चांदी आदि वस्तुएँ भी बाहरी है इसलिए बहिर्द्धा शब्द से दोनों का ग्रहण कर लिया गया है। इस अपेक्षा से चातुर्याम शब्द का अर्थ भी पांच महाव्रत रूप ही समझना चाहिए। जैसे ३ बीसी (२०+२०+२०= ६०) और ६० इन में केवल शब्दों का अन्तर है अर्थ दोनों का एक ही है। इसी तरह पंचमहाव्रत और चातुर्याम धर्म इनमें केवल शब्दों का अन्तर दिखाई देता है भावार्थ दोनों का एक ही है। इसलिए भरतक्षेत्र, ऐरवत क्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र इन तीनों क्षेत्रों के साधु साध्वी प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान “विरमण, मैथुन विरमण और परिग्रह विरमण इन पांचों महाव्रतों का पालन करते हैं किन्तु किसी के लिये किसी भी एक महाव्रत नहीं पालने की छूट नहीं है।
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