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________________ २७४ कषाय भेद.. चत्तारि कंसाया पण्णत्ता तंजहा कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोहकसाए। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । चउपइट्ठिए कोहे पण्णत्ते तंजहा - आयपट्ठिए, परपइट्ठिए, तदुभयपइट्ठिए, अपइट्ठिए, एवं णेरड्याणं जाव वेमाणियाणं, एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं । चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पई सिया तंजहा - खेतं पडुच्च, वत्थं पडुच्च, सरीरं पडुच्च, उवहिं पडुच्च । एवं णेरइयाणं जाव वैमाणियाणं । एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं । चउव्विहे कोहे पण्णत्ते तंजहा- अनंताणुबंधि कोहे, अपच्चक्खाण कोहे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, संजलणे कोहे । एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं । चडव्विहे कोहे पण्णत्ते तंजा - आभोगणिव्यत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए, उवसंते, अणुवसंते। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं जाव लोहे जाव वेमाणियाणं ॥ १३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - देवसिणाए देव स्नातक, देव पुरोहिए - देव पुरोहित, देव पज्जलणे देव प्रज्वलन - चारण भाट की तरह देवों का गुणगान करने वाला, संवासे संवास-मैथुन, छवीए - छवि के, सद्धिं साथ, चउपइट्ठिए - चतुः प्रतिष्ठित - चार स्थानों में रहने वाला, आयपइट्ठिए- आत्म प्रतिष्ठित, परपइट्ठिए पर प्रतिष्ठित, तदुभयपइट्टिए - तदुभय प्रतिष्ठित, कोहुप्पई क्रोध की उत्पत्ति, खेत्तं क्षेत्र, पडुच्च आश्रित, उवहिं उपधि, अणंताणुबंधि- अनन्तानुबंधी, अपच्चक्खाणअप्रत्याख्यान, पच्चक्खाणावरणे प्रत्याख्यानावरण, संजलणे संज्वलन, आभोगणिव्वत्तिए भोग निवर्तित-क्रोध के फल को जानते हुए क्रोध करना, अणाभोगणिव्वत्तिए - अनाभोग निवर्तित, उवसंते - उपशान्त, अणुवसंते अनुपशांत । भावार्थ - देवों की चार प्रकार की स्थिति यानी मर्यादा कही गई है यथा - कोई देव सामान्य देव होता है, कोई देव देवस्नातक यानी देवों में प्रधान होता है। कोई देव देवपुरोहित यानी शान्तिकर्म कराने वाला होता है और कोई देव देवप्रज्वलन यानी चारण, भाट की तरह देवों के गुणगान करने वाला होता है। - - Jain Education International श्री स्थानांग सूत्र - चार प्रकार का संवास यानी मैथुन कहा गया है यथा- कोई देव देवी के साथ सम्भोग करता है, कोई देव छवि यानी औदारिक शरीर वाली नारी और तिर्यचणी के साथ सम्भोग करता है, कोई देव छवि यानी औदारिक शरीर वाला मनुष्य और तिर्यञ्च देवी के साथ सम्भोग करता है और कोई मनुष्य और तिर्यञ्च नारी और तिर्यञ्चणी के साथ सम्भोग करता है। - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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