SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान ४ उद्देशक १ २५५ अपजात, कुलिंगाले - कुलांगार, सच्चे - सच्चा, सुई - शुचि पवित्र, असुई - अपवित्र, कोरवा - कोरक-कुंपल, अंबपलंब कोरवे - आम्र के फल की कूपल, तालपलबकोरवे - ताड के फल की कूपल, वल्लिपलबकोरवे - बेले के फल की कूपल, मेंढविसाणकोरवे - मींढे के सींग के आकार वाले फल देने वाली वनस्पति की कूपल। भावार्थ - चार प्रकार के पुत्र कहे गये हैं। यथा - अतिजात अर्थात् जो पिता की अपेक्षा समृद्धि में अधिक हो जैसे भरत चक्रवर्ती । अनुजात अर्थात् पिता के समान समृद्धि वाला, जैसे आदित्य यश का पुत्र महायश अथवा श्रेणिक का पुत्र कोणिक। अपजात अर्थात् पिता की समृद्धि से कुछ कम समृद्धि वाला जैसे भरत चक्रवर्ती का पुत्र आदित्य यश। कुलाङ्गार यानी कुल के लिए अङ्गार के समान, जैसे कण्डरीक, दुर्योधन आदि। सामान्यतया सुत शब्द का अर्थ पुत्र होता है किन्तु शिष्य अर्थ में भी सुत शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए शिष्य की अपेक्षा यह चौभङ्गी इस प्रकार समझनी चाहिए-अतिजात शिष्य जैसे - सिंहगिरि की अपेक्षा वैरस्वामी। अनुजात शिष्य, जैसे - शय्यंभव स्वामी की अपेक्षा यशोभद्र स्वामी। अपजात शिष्य जैसे भद्रबाहुस्वामी की अपेक्षा स्थूल भद्र स्वामी। कुलाङ्गार शिष्य जैसे उदायी राजा को मारने वाला कपट वेषधारी साधु विनयरत्न भाट या कूलवालक नदी के प्रवाह को फेर देने वाला साधु। चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं - यथा कोई एक पुरुष सच्चा यानी यथावत् वस्तु का कथन करने वाला और सच्चा यानी की हुई प्रतिज्ञा का यथार्थ रूप से पालन करने वाला अर्थात् द्रव्य से सच्चा और भाव से भी सच्चा। कोई एक पुरुष सच्चा यानी यथार्थ वस्तु का कथन करने वाला किन्तु असत्य अर्थात् जैसा कहता है उस तरह से प्रतिज्ञा का पालन न करने वाला यानी द्रव्य से सत्य किन्तु भाव से असत्य। कोई पुरुष द्रव्य से असत्य किन्तु भाव से सत्य। कोई पुरुष द्रव्य से असत्य और भाव से भी असत्य अथवा काल की अपेक्षा भी यह चौभङ्गी कही जा सकती है। यथा - कोई पुरुष पहले भी सच्चा और पीछे भी सच्चा। कोई परुष पहले सच्चा किन्त पीछे सच्चा नहीं। कोई पहले सच्चा नहीं किन्त पीछे सच्चा और कोई पहले भी सच्चा नहीं और पीछे भी सच्चा नहीं। इसी प्रकार सत्यपरिणत, सत्य रूप, सत्य मन, सत्य संकल्प, सत्य प्रज्ञा, सत्य दृष्टि, सत्य शीलाचार, सत्य व्यवहार यावत् सत्य पराक्रम इन सब की प्रत्येक की चौभङ्गी कह देनी चाहिये। ... चार प्रकार के वस्त्र कहे गये हैं यथा - कोई एक वस्त्र द्रव्य से भी पवित्र और संस्कार से भी पवित्र। कोई एक वस्त्र द्रव्य से पवित्र किन्तु संस्कार से अपवित्र । कोई वस्त्र द्रव्य से अपवित्र किन्तु संस्कार से पवित्र और कोई वस्त्र द्रव्य से भी अपवित्र और संस्कार से भी अपवित्र । अथवा कोई एक वस्त्र पहले भी पवित्र और पीछे भी पवित्र, इस प्रकार काल की अपेक्षा भी यह चौभङ्गी जाननी चाहिए। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं। यथा - कोई एक पुरुष शुचि यानी शरीर से पवित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy