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________________ २४२ श्री स्थानांग सूत्र उत्तर - हे गौतम ! तीन समय अथवा चार समय वाला विग्रह से उत्पन्न होता है। विशेषणवती ग्रंथ में भी कहा है कि सुत्ते चउसमयाओ, णत्थि गई उपरा विणिहिट्ठा। जुज्जइ य पंच समया जीवस्स इमा गई लोए॥ - सिद्धान्त में चार समय वाली गति से ऊपर वक्रगति नहीं कही है परन्तु लोक में जीव के इस प्रकार पांच समय वाली वक्रगति भी संभव हो सकती है। जो तमतम विदिसाए, समोहओ बंभलोगविदिसाए। उववजई गईए, सो नियमा पंच समयाए ॥ जो जीव सातवीं नरक भूमि की विदिशा में मरण समुद्घात से ब्रह्मलोक की विदिशा में उत्पन्न होता है वह पांच समय वाली वक्र गति से उत्पन्न होता है। उववाया भावाओ न पंचसमयाहवा न संतावि। भणिया जह चउसमया, महल्लबंधे न संतावि।। उपरोक्तानुसार जीव के उत्पन्न होने के अभाव से पांच समय नहीं होते अथवा पांच समय होते है। फिर भी (अपवाद भूत होने से ) नहीं कहे हैं। जैसे चार समय वाली गति होने पर भी विस्तार वाले शास्त्र में नहीं कही है उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिये। अतः एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक पर्यंत जीवों के उत्कृष्ट तीन समय वाली विग्रह गति होती है। खीणमोहस्स णं अरहओ तओ कम्मंसा जुगवं खिज्जति तंजहा - णाणावरणिज्जं दसणावरणिग्जं अंतरायं। अभिई णक्खत्ते तितारे पण्णत्ते, एवं सवणे, अस्सिणी, भरणी, मगसिरे, पूसे, जिट्ठा। धम्माओ णं अरहाओ संती अरहा तिहिं सागरोवमेहिं तिचउब्भागपलिओवम ऊणएहिं वीइक्कंतेहिं समुप्पण्णे। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जाव तच्चाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी। मल्ली णं अरहा तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए । एवं पासे वि। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तिण्णि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसण्णिवाईणं जिण इव अवितह वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया होत्था। तओ तित्थयरा चक्कवट्टी होत्था तंजहा - संती, कुंथू, अरो॥१२३॥ कठिन शब्दार्थ - खीण मोहस्स - क्षीण मोहनीय वाले, कम्मंसा - कर्मांश अर्थात् कर्मों की प्रकृतियाँ, जुगवं - युगपत्-एक साथ, खिजंति - क्षय होती हैं, तितारे - तीन तारों वाला, तिचउभागपलिओवमऊणएहिं - पल्योपम का तीन चौथाई कम, वीइक्कतेहिं - बीत जाने पर, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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