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________________ 13 २२८ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - कप्पठिई - कल्पस्थिति, सामाइय - सामायिक, छेओवट्ठावणिय - छेदोपस्थापनीय, णिव्विसमाण - निर्विशमान-आचरण किया जाता हुआ, णिविट्ठ - निर्विष्ट-आचरण कर लिया गया। ___भावार्थ - तीन प्रकार की कल्पस्थिति कही गई है यथा - सामान्य कल्पस्थिति यानी सामायिक चारित्र, छेदोपस्थानीय कल्पस्थिति और निर्विशमान कल्पस्थिति। अथवा तीन प्रकार की कल्पस्थिति कही गई है यथा - निर्विष्ट कल्पस्थिति, जिनकल्प स्थिति और स्थविरकल्प स्थिति। विवेचन - प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय सामायिक चारित्र अल्पकाल के लिए होता है । क्योंकि उनमें छेदोपस्थानीय चारित्र पाया जाता है और शेष बाईस तीर्थंकरों के समय में तथा महाविदेह क्षेत्र में छेदोपस्थानीय चारित्र नहीं होता है इसलिए सामायिक चारित्र यावज्जीवन के लिए होता है। जिस चारित्र में पहले का दीक्षा पर्याय का छेदन करके फिर महाव्रत दिये जाते हैं अर्थात् महाव्रत आरोपित किये जाते हैं वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। उस चारित्र का पालन करना 'छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति' कहलाती है। नौ साधु मिल कर परिहारविशुद्धि तप करते हैं वह परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है और उस चारित्र में स्थित रहना परिहार विशुद्धि कल्पस्थिति है। जिन नौ साधुओं के गण ने परिहारविशुद्धि तप का आचरण कर लिया है वे निर्विष्ट कल्पस्थिति वाले कहलाते हैं। गच्छ में न रह कर, अकेले विचरने वाले वप्रऋषभ नाराच संहनन वाले कम से कम नवमें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु के ज्ञाता साधुओं का चारित्र 'जिनकल्प स्थिति' कहलाता है। गच्छ में रह कर संयम का पालन करने वाले साधुओं का चारित्र 'स्थविरकल्प स्थिति' कहलाता है। णेरइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता तंजहा - वेउव्विए तेयए कम्मए। असुरकुमाराणं तओ सरीरगा पण्णत्ता तंजहा - एवं चेव। एवं सव्वेसिं देवाणं। पुढवीकाइयाणं तओ सरीरगा पण्णत्ता तंजल - ओरालिए तेयए कम्मए एवं वाउकाइयवखाणं जाव चउरिदियाणं। गुरुं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहाआयरिय पडिणीए, उवझायपडिणीए, थेरपडिणीए। गई पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा - इहलोगपडिणीए, परलोग पडिणीए, दुहओ लोगपडिणीए। समूह पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा - कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए। अणुकंपं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा - तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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