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पढमं ठाणं-प्रथम स्थान
प्रथम उद्देशक
प्रथम स्थान में एक से सम्बन्धित विषय प्रतिपादित है। इस अध्ययन में वस्तु तत्त्व का विचार 'संग्रह नय' की दृष्टि से किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य तत्त्ववाद (द्रव्यानुयोग) है। इसमें विषय संक्षेप होने से यह अध्ययन छोटा है। इसके अनेक विषयों का विस्तार आगे के अध्ययनों में मिलता है।
एगे आया। एगे दंडे। एगा किरिया। एगे लोए। एगे अलोए। एगे धम्मे। एगे अधम्मे। एगे बंधे। एगे मोक्खे। एगे पुण्णे। एगे पावे। एगे आसवे। एगे संवरे। एगा वेयणा। एगा णिज्जरां ॥२॥
कठिन शब्दार्थ - एगे - एक, आया - आत्मा, दंड़े - दण्ड, किरिया - क्रिया, लोए - लोक, अलोए - अलोक, धम्मे - धर्मास्तिकाय, अधम्मे - अधर्मास्तिकाय, बंधे - बंध, मोक्खे - मोक्ष, पुण्णे - पुण्य, पावे - पाप, आसवे - आस्रव, संवरे - संवर, वेयणा - वेदना, णिजरा - निर्जरा।
भावार्थ - आत्मा एक है। दण्ड एक है। क्रिया एक है। लोक एक है। अलोक एक है। धर्मास्तिकाय एक है। बन्ध एक है। मोक्ष एक है। पुण्य एक है। पाप एक है। आस्रव एक हैं। संवर एक है। वेदना एंक है। निर्जरा एक है ।। २ ॥
विवेचन - यह पहला स्थान है इसमें संग्रहनय की अपेक्षा एक संख्या की विवक्षा की गई है। इसलिए सब पदार्थों को एक एक बतलाया गया है। इसी प्रकार इस पहले स्थान में सब एकएक संख्या वाले पदार्थों का कथन किया गया है। यथा - एगे आया - आत्मा एक है।
आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-संस्कृत में 'अत सातत्यगमने' धातु है जिसका अर्थ हैनिरन्तर गमन करना। अतति, गच्छति सततं तान्-तान् पर्यायान् इति आत्मा' अर्थात् जिसमें निरन्तर पर्यायें पलटती रहती हैं उसे आत्मा कहते हैं। संस्कृत का नियम है कि "सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः" अर्थात् गति अर्थक जितनी धातुएं हैं वे सब ज्ञानार्थक हो जाती हैं। इस अपेक्षा से "सततं निरन्तरं अतति अवगच्छति जानोति इति आत्मा" अर्थात् जो निरन्तर ज्ञान करती रहती है उसे आत्मा कहते हैं। अथवा जो निरन्तर अपने ज्ञानादि पर्यायों को प्राप्त करता है वह आत्मा है। 'जीवो उवओग लक्खणो'उपयोग लक्षण की दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं। एक लक्षण रूप होने से आत्मा एक है। अथवा जन्म, मरण, सुख दुःख आदि भोगने में कोई दूसरा सहायक नहीं होने से आत्मा एक है।
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