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________________ स्थान ३ उद्देशक ४ -- २१५ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 . चरित्तसंकिलेसे। एवं असंकिलेसे वि एवं अइक्कमे वि। वइक्कमे वि अइयारे वि अणायारे वि। तिण्हं अइक्कमाणं आलोएजा पडिक्कमेजा णिदिजा गरहिज्जा जाव पडिवजिजा, तंजहा - णाणाइक्कमस्स दंसणाइक्कमस्स चरित्ताइक्कमस्स एवं वइक्कमाण वि अइयाराणं अणायाराणं। तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते तंजहा - आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे॥१०३॥ कठिन शब्दार्थ - पण्णवणा - प्रज्ञापना, सम्मे - सम्यक्, उवघाए - उपघात, उग्गमोवघाएउद्गमोपघात, उप्पायणोवघाए - उत्पादनोपघात, एसणोवघाए - एषणोपघात, विसोही - विशुद्धि, आराहणा - आराधना, संकिलेसे - संक्लेश, अइक्कमे - अतिक्रम, वइक्कमे - व्यतिक्रम, अइयारे - अतिचार, अणायारे - अनाचार, अइक्कमाणं - अतिक्रमों की, पडिक्कमेज्जा - प्रतिक्रमण, पडिवजिजा - अंगीकार करना चाहिये, आलोयणारिहे - आलोचनाह-आलोचना के योग्य, पडिक्कमणारिहे- प्रतिक्रमण के योग्य। भावार्थ - तीन प्रकार की प्रज्ञापना कही गई है। यथा - ज्ञान प्रज्ञापना, दर्शन प्रज्ञापना, चारित्र प्रज्ञापना। तीन प्रकार का सम्यक् कहा गया है। यथा - ज्ञान सम्यक्, दर्शन सम्यक्, चारित्र सम्यक् । तीन प्रकार के उपघात कहे गये हैं। यथा - उद्गमोपघात यानी गृहस्थ की तरफ से लगने वाले आधाकर्म आदि सोलह उद्गम दोष, उत्पादनोपघात यानी साधु की तरफ से लगने वाले धाई दूई आदि सोलह उत्पादना दोष और एषणोपघात यानी गृहस्थ और साधु दोनों की तरफ से लगने वाले शंका आदि दस एषणा दोष। इसी प्रकार उपरोक्त दोषों को टाल कर आहारादि लेना सो विशुद्धि भी तीन प्रकार की है। यथा - उद्गम विशुद्धि, उत्पादना विशुद्धि और एषणा विशुद्धि। तीन प्रकार की आराधना कही गई है। यथा - 'ज्ञान आराधना, दर्शन आराधना और चारित्र आराधना। ज्ञान आराधना तीन प्रकार की कही गई है। यथा - उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य। इस प्रकार दर्शन आराधना और चारित्र आराधना के भी उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ये तीन तीन भेद जानने चाहिए। ज्ञान आदि से गिरना रूप संक्लेश तीन प्रकार का कहा गया है। यथा - ज्ञान संक्लेश, दर्शन संक्लेश, चारित्र संक्लेश। इसी प्रकार असंक्लेश अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन सब के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अपेक्षा तीन तीन भेद जानने चाहिए। ज्ञान अतिक्रम, दर्शन अतिक्रम और चारित्र अतिक्रम इन तीन अतिक्रमों की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा करनी चाहिए। यावत् उसके योग्य प्रायश्चित्त रूप तप अङ्गीकार करना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र के व्यतिक्रम अतिचार और अनाचार, इन सब के लिए आलोचना आदि करना चाहिए। तीन प्रकार का प्रायश्चित्त कहा है। यथा - आलोचना के योग्य, प्रतिक्रमण के योग्य और तदुभय यानी आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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