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________________ स्थान ३ उद्देशक ३ २०९ उवक्कमे। अहवा तिविहे उवक्कमे पण्णत्ते तंजहा - आओवक्कमे, परोवक्कमे, तदुभयोवक्कमे एवं वेयावच्चे अणुग्गहे, अणुसट्ठी, उवालंभं, एवमेक्केक्के तिण्णि तिण्णि आलावगा जहेव उवक्कमे॥९८॥ __कठिन शब्दार्थ - अस्थिकायधम्मे - अस्तिकाय धर्म, उवक्कमे - उपक्रम (उद्यम), धम्मियाधम्मिए उवक्कमे - धार्मिकाधार्मिक उपक्रम, आओवक्कमे - आत्मोपक्रम, परोवक्कमे - परोपक्रम, तदुभयोवक्कमे - तदुभयोपक्रम, वेयावच्चे - वैयावृत्य, अणुग्गहे - अनुग्रह, अणुसट्ठी - अनुशिष्टि - शिक्षा, उवालंभं - उपालम्भ। ___ भावार्थ - तीन प्रकार का धर्म कहा गया है। यथा - सिद्धान्त का पठन-पाठन एवं मनन करना सो श्रुत धर्म, क्षमा आदि दस प्रकार का यतिधर्म सो चारित्र धर्म और धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य का स्वभाव सो अस्तिकाय धर्म। श्रुत धर्म और चारित्र धर्म ये दो भाव धर्म हैं और धर्मास्तिकाय द्रव्य धर्म है। तीन प्रकार का उपक्रम यानी उद्यम कहा गया है। यथा - श्रुत चारित्र रूप धर्म का पालन करना सो धार्मिक उपक्रम, पापारम्भ करना सो अधार्मिक उपक्रम और देशविरति श्रावकपने का पालन करना का आरम्भ सो धार्मिकाधार्मिक उपक्रम। अथवा तीन प्रकार का उपक्रम कहा गया है। यथा - अनुकूल उपसर्ग आदि होने पर शील की रक्षा के लिए वैहानस आदि मरण करना सो आत्मोपक्रम, पर के लिए मरना सो परोपक्रम और स्व और पर दोनों के लिए उपक्रम करना सो तदुभयोपक्रम। इस प्रकार जैसे उपक्रम के तीन भेद कहे हैं वैसे ही वैयावृत्य, अनुग्रह यानी ज्ञानादि का उपकार, अनुशिष्टि यानी शिक्षा और उपालम्भ। इन सब में प्रत्येक के तीन तीन आलापक यानी भेद कह देने चाहिए। विवेचन - धर्म के तीन भेद कहे हैं - १. श्रुतधर्म २. चारित्र धर्म और ३. अस्तिकाय धर्म। १. श्रुतधर्म - अंग उपांग रूप वाणी को श्रुत धर्म कहते हैं। वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय के भेद भी श्रुत धर्म कहलाते हैं। २. चारित्र धर्म - कर्मों के नाश करने की चेष्टा चारित्र धर्म है। अथवा मूल गुण और उत्तर गुणों के समूह को चारित्र धर्म कहते हैं । अर्थात् क्रिया रूप धर्म ही चारित्र धर्म है। ३. अस्तिकाय धर्म - धर्मास्तिकाय आदि को अस्तिकाय धर्म कहते हैं। तिविहा कहा पण्णत्ता तंजहा - अत्थकहा धम्मकहा कामकहा।तिविहे विणिच्छए पण्णत्ते तंजहा - अत्यविणिच्छए, धमविणिच्छए, कामविणिच्छए॥९९॥ ... कठिन शब्दार्थ - कहा - कथा, अत्थकहा - अर्थ कथा, धम्मकहा - धर्म कथा, कामकहा - काम कथा, विणिच्छए - विनिश्चय, अत्यविणिच्छए - अर्थ विनिश्चय, धम्मविणिच्छए - धर्म विनिश्चय, कामविणिच्छए - काम विनिश्चय। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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