________________
स्थान ३ उद्देशक ३
२०३
00000
प्रकार की व्याख्या मिलती नहीं हैं। इसलिए अन्तगड और भगवती सूत्र में बतलाया गया है कि 'चतुर्थभक्त इति उपवासस्य संज्ञा' अर्थात् चतुर्थ भक्त यह उपवास की संज्ञा है। इसी प्रकार षष्ठ भक्त बेले की संज्ञा है और अष्टम भक्त तेले की संज्ञा है । संज्ञा किसी पदार्थ में रूढ़ होती है उसका वहाँ शब्दार्थ नहीं लिया जाता है। उपवास के पहले दिन में एक भक्त, पारणे के दिन एक भक्त और उपवास के दिन दो भक्त इस प्रकार चार भक्तं चतुर्थभक्त कहलाता है।
भोजन करने के स्थान में लाकर रखा हुआ आहार 'उपहृत' कहलाता है।
ऊनोदरी - भोजन आदि के परिमाण और क्रोध आदि के आवेग को कम करना ऊनोदरी है। यहां नो तप तीन प्रकार का कहा है -
१. उपकरण ऊनोदरी - मर्यादा से कम वस्त्र पात्र रखना । उपकरण के लिये टीकाकार ने कहा है - शास्त्र में बतायी हुई उपधि के अभाव में तो संयम का अभाव हो जाता है। अतः मर्यादा से अधिक न रखना ऊनोदरी है। जो उपकरण ज्ञानादि के उपकार में साधु के लिये आवश्यक हैं वे ही उपकरण है। जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है वह अधिकरण रूप है क्योंकि वहां मूर्च्छा का कारण बनता है । अयना वाले के द्वारा अयतना से धारण किये जाने वाले जो उपकरण हैं वे 'उसके लिए अधिकरण रूप हैं। यथा
• जं वट्टइ उवगारे, उवकरणं तं सि (तेसि) होइ उवगरणं ।
अइरेगं अहिगरणं अजओ अजयं परिहरंतो ॥
यहाँ पर 'एक वस्त्र और एक पात्र' का जो कथन किया गया है उसके लिए टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि यह विधान जिनकल्पी मुनि के लिए लागू होता है। स्थविर कल्पी मुनि के लिए नहीं क्योंकि स्थविर कल्पी मुनि तो अपनी मर्यादा के अनुसार वस्त्र - पात्र रख सकता हैं।
२. भक्तपान ऊनोदरी - शास्त्र में आहार पानी का जो परिमाण बतलाया गया है उसमें कमी
करना ।
-बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ ।
पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ॥।
पुरुष के लिये बत्तीस कवल (कोलिया) आहार कुक्षिपूरक (उदरपूरक) कहा है और स्त्री का आहार २८ कवल का होता है।
कवलाण य परिमाणं कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्तं तु ।
जो वा अविगियवयणो, वयणंमि छुहेज्ज वीसत्थो ।। ११९ ।।
कवल का परिमाण तो कुर्कटी (कूकडी) के अंडे के प्रमाण जितना है अथवा अविकृत रूप से सुखपूर्वक मुख में प्रवेश हो सके उतने प्रमाण आहार का एक कवल जानना । आहार की
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org