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________________ २०१ स्थान ३ उद्देशक ३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 अणुपालेमाणस्स अणगारस्स तओ ठाणा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेयसाए अणुगामियत्ताए भवंति तंजहा - ओहिणाणे वा से समुप्पज्जेजा, मणपज्जवणाणे वा से समुप्पज्जेजा, केवलणाणे वा से समुप्पज्जेज्जा॥९४॥ . कठिन शब्दार्थ - चउत्थभत्तियस्स - चतुर्थ भक्त (उपवास) करने वाले, पाणगाइं - पानी, पडिगाहित्तए - लेना, कप्पंति - कल्पता है, उस्सेइमे - उत्स्वेदिम-कठौती आदि का धोया हुआ धोवन, संसेइमे - संस्वेदिम, चाउलधोवणे - तंदुल धावन-चावलों का धोया हुआ पानी, छठ भत्तियस्स - षष्ठ भक्त (बेला) करने वाले, तिलोदए - तिलों का धोवन, तुसोदए - तुसों का धोवन, जवोदए - यवों का धोवन, अट्ठमभत्तियस्स - अष्टम भक्त (तेला) करने वाले, आयामए - आयामक, ओसामणचावल आदि का मांड, सोवीरए - कांजी का पानी, सुद्धवियडे - शुद्धविकट-उष्णोदक, उवहडे - उपहृत-लाया हुआ, फलिहोवहडे - फलिकोपहृत, सुद्धोवहडे - शुद्धोपहृत, संसट्ठोवहडे - संसृष्टोपहत, उग्गहिए - अवग्रह, ओमोयरिया - अवमोदरिका ऊनोदरी तप, उवगरणोमोयरिया - उपकरण ऊनोदरी, भत्तपाणोमोयरिया - भक्त पान ऊनोदरी, भावोमोयरिया - भाव ऊनोदरी, चियत्तोवहि साइजणयासंयम के उपकारक मलिन एवं जीर्ण वस्त्र आदि उपकरण रखना, कूयणया - कूजनता, कक्करणया - कर्करणता-शय्या और उपधि के दोष बताना, अवज्झाणया- अपध्यानता, अणिस्सेयसाए - अनिःश्रेयस (अकल्याण) के लिए, अणाणुगामियत्ताए - अशुभानुबंध के लिए, आयावणयाए - आतापना लेने से, खंतिखमाए - क्षमा करने से संखित्तविउलतेउलेस्से - संक्षिप्त की हुई विपुल तेजो लेश्या, पडिवण्णस्स- धारण करने वाले, एगराइयं - एक रात्रि की, भिक्खुपडिमे -- भिक्षु प्रतिमा, अणणुपालेमाणस्स - पालन न करने वाले, उम्मायं - उन्माद को, भंसेज्जा - भ्रष्ट हो जाय। भावार्थ - चतुर्थभक्त यानी उपवास करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी लेना कल्पता है। यथा - उत्स्वेदिम यानी कठौती आदि का धोवन, संस्वेदिम यानी शाकभाजी को बाफ कर जो पानी निकाला जाता है और तन्दुलधावन यानी चावलों का धोया हुआ पानी। षष्ठभक्त यानी बेला करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्पता है। यथा - तिलों का धोवन, तुसों का धोवन और यवों का धोवन । अष्टमभक्त यानी तेला करने वाले साधु को तीन प्रकार का पानी लेना कल्पता है। यथा-आयामक यानी ओसामण-चावल आदि का मांड, काजी का पानी और उष्णोदक यानी गर्म पानी। तीन प्रकार का उपहृत कहा गया है। यथा - फलिकोपहत यानी फली आदि जिसको कि वह खाने की इच्छा करता है। उसे लेना शुद्धोपहृत यानी लेप रहित शुद्ध आहार को लेना और संसष्टोपहत यानी खाने के लिए जिस आहार में हाथ डाला गया है किन्तु अभी मुख में नहीं डाला गया है ऐसे आहार को लेना। तीन प्रकार का अवग्रह कहा गया है। यथा - जो आहार गृहस्थ ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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