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________________ स्थान ३ उद्देशक ३ १९७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पागारपरिरक्खिया एगदुवारा पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा ते णं सिंघाडग संठाणसंठिया दुहओपागारपरिरक्खिया एगओ वेइया परिरक्खिया तिदुवारा पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते चउरंसविमाणा ते णं अक्खाडग संठाणसंठिया, सव्वओ समंता वेइया परिरक्खिया चउदुवारा पण्णत्ता। तिपइद्विया विमाणा पण्णत्ता तंजहा - घणोदहि पइट्ठिया घणवायपइट्ठिया ओवासंतरपइट्ठिया। तिविहा विमाणा पण्णत्ता तंजा - अवट्ठिया वेउव्विया परिजाणिया॥९२॥ कठिन शब्दार्थ - पीहेज्जा - इच्छा करता है, माणुसं भवं - मनुष्य भव, आरिए - आर्य, खेत्तेक्षेत्र में, सुकुलपच्चायाइं - उत्तम कुल में जन्म, परितप्पेजा - पश्चात्ताप करता है, बले - शारीरिक बल, वीरिए - वीर्य, पुरिसक्कारपरक्कमे -- युरुषकार पराक्रम के, संते - होने पर, खेमंसि - उपद्रव रहित, सुभिक्खंसि - सुकाल में, विज्जमाणेहिं - संयोग मिलने पर, कल्लसरीरेणं - नीरोग शरीर होते हुए भी, सुए - सूत्रों का, अहीए - अध्ययन किया, विसयतिसिएणं - विषय भोगों की तृष्णा से, परलोगपरंमुहेणं - पर लोक से पराङ्मुख रह कर, दीहे - दीर्घ काल तक, सामण्णपरियाए - श्रमण पर्याय का, अणुपालिए - अनुपालन, इड्डिरससायगुरुएणं - ऋद्धि, रस सुख के अभिमान से, भोगामिसगिद्धेणं - कामभोग रूपी मांस में गृद्ध बन कर, जाणाइ - जान लेता है कि, चइस्सामि - चलूँगा, णिप्पभाई - निष्प्रभ, कप्परुक्खयं - कल्पवृक्ष को, मिलायमाणं - म्लान होते हुए, तेयलेस्संतेजोलेश्या-शरीर की दीप्ति को, उव्वेगं - उद्वेग को, आगच्छेज्जा - प्राप्त होता है, माउओयं - माता का . रज पिउसुक्कं - पिता का वीर्य, तदुभयसंसिटुं - दोनों परस्पर मिला हुआ, कलमलजंबालाए - पेट में रहे हुए पदार्थ रूपी कीचड़ युक्त, असईए - अशूचि के भण्डार, उव्वेयणियाए - उद्वेगकारी, भीमाएभयंकर गब्भवसहीए - गर्भवास में, तिसंठिया - तीन संस्थान वाले, पुक्खरकण्णिया - पुष्कर कर्णिका, पागारपरिरक्खिया - कोट से घिरे हुए, एगदुवारा - एक द्वार वाले, सिंघाडगसंठाण संठिया - सिंघाडे के समान आकार वाले, ओवासंतरपइट्ठिया - आकाश के आधार पर रहे हुए, अवट्ठिया - अवस्थित। भावार्थ - देव तीन बातों की इच्छा करता है। यथा - मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र में जन्म और उत्तम कुल में जन्म। तीन कारणों से देव पश्चात्ताप करता है। यथा - अहो ! मेरे में शारीरिक बल वीर्य पुरुषकार पराक्रम के होने पर और उपद्रव रहित सुकाल में आचार्य उपाध्याय का संयोग मिलने पर भी तथा मेरा नीरोग शरीर होते हुए भी मैंने बहुत सूत्रों का-शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया। अहो ! इस लोक सम्बन्धी विषयभोगों की तृष्णा से परलोक से पराङ्मुख रह कर मैंने बहुत समय तक श्रमण पर्याय का पालन नहीं किया। अहो ! ऋद्धि, रस और सुख अभिमान से तथा कामभोग रूपी मांस में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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