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________________ स्थान ३ उद्देशक ३ १९१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 गणी - साधुओं के समुदाय को 'गण' कहते हैं। गण के नायक 'गणी' कहलाते हैं। सूत्र और अर्थ में निष्णात, शुभ क्रिया में कुशल, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, जाति और कुल संपन्न, क्रिया के अभ्यासी आदि अनेक गुणों के धारक अनगार "गणी" पद के योग्य होते हैं। उपसम्पदा - ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति के लिये अपना गच्छ छोड़ कर किसी विशेष ज्ञान वाले आचार्य, उपाध्याय और गणी का आश्रय लेना उपसम्पदा कहलाती है। उपसम्पदा तीन प्रकार की होती है। विजहना - अपने गच्छ के आचार्य, उपाध्याय और गणी ज्ञान, दर्शन, चारित्र में प्रमाद करते हों तो उस गच्छ को छोड़ देना विजहना (त्याग) कहलाती है। विजहना भी तीन प्रकार की कही है। तिविहे वयणे पण्णत्ते तंजहा - तव्वयणे तयण्णवयणे णोअवयणे। तिविहे अवयणे पण्णत्ते तंजहा - णोतनयणे णोतयण्णवयणे अवयणे।तिविहे मणे पण्णत्ते तंजहा - तम्मणे तवण्णमणे णो अमणे। तिविहे अमणे पण्णत्ते तंजहा - णोतम्मणे णोतयण्णमणे अमणे॥८९॥ ___ कठिन शब्दार्थ - तव्वयणे - तद्वचन, तयण्णवयणे - तदन्य वचन, अमणे - अमन। भावार्थ - तीन प्रकार का वचन कहा गया है यथा - तदवचन यानी घडे को घडा कहना। तदन्यवचन यानी घट (घड़ा) को पट (कपड़ा) कहना और नोअवचन यानी निरर्थक शब्द कहना। तीन प्रकार के अवचन कहे गये हैं यथा - नो तद्वचन यानी घट को घट न कहना, नो तदन्यवचन यानी घट से अन्य पट को पट न कहना और अवचन यानी कुछ न कहना। इसी प्रकार तीन प्रकार का मन कहा गया है यथा - तन्मन यानी उस विषय में - घटादि में मन का लगना, तदन्य मन घट के सिवाय पट आदि में मन का लगना और नोअमन यानी किसी भी विषय में मन का न लगना। तीन प्रकार का अमन कहा गया है यथा - नोतन्मन, नो तदन्यमन और अमन । ... तिहिं ठाणेहि अप्पवुट्टिकाए सिया तंजहा - तसि य णं देससि वा पएससि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विठक्कमति चयंति उववजति, देवा णागा जक्खा भूया णो सम्ममाराहिया भवंति, तत्व समुट्ठियं उदगपोग्गलं परिणयं वासिउकामं अण्णं देसं साहरति, अन्नवालनं च समुट्टियं परिणयं वासिउकामं वाउकाए विहुणेह, इच्चेएहि तिहिं ठाणेहि अप्पवृद्धिकाए सिया। तिहिं ठाणेहिं महावुट्टिकाए सिया तंजहा - तंसि य णं देसंसि वा पएसंसि वा बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमंति चयंति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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