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________________ स्थान ३ उद्देशक ३ १८७ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 यथा योग्य, पायच्छित्तं - प्रायश्चित्त, तवोकम्मं - तप कर्म, पडिवजिजा - अंगीकार करता है, अकित्तीअपकीर्ति, अवण्णे - अवर्णवाद (अपयश), अविणए - अविनय, परिहाइस्सइ - कम हो जायगा, णाणट्ठयाए - ज्ञान के लिए, दंसणट्ठयाए - दर्शन के लिए, चरित्तट्ठयाए - चारित्र के लिए। भावार्थ - तीन कारणों से मायावी पुरुष माया करके उसकी आलोयणा (आलोचना) नहीं करता, उसका प्रतिक्रमण नहीं करता, आत्म साक्षी से निन्दा नहीं करता, गुरु के समक्ष गर्दा नहीं करता, उससे निवृत्त नहीं होता, उसकी विशुद्धि नहीं करता, फिर दुबारा न करने के लिए तय्यार नहीं होता अर्थात् निश्चय नहीं करता, उस दोष के लिए यथा योग्य उचित प्रायश्चित्त रूप तप अङ्गीकार नहीं करता है। वे तीन कारण ये हैं - वह सोचता है कि मैंने दोष का सेवन कर लिया है तो अब उस पर पश्चात्ताप क्या करना ? अथवा मैं अब भी उसी दोष का सेवन कर रहा हूँ, उससे निवृत्त हुए बिना आलोचना कैसे हो सकती है ? अथवा मैं उस दोष का फिर सेवन करूंगा। इसलिए आलोचना कैसे करूं। तीन कारणों से मायावी पुरुष माया करके उसकी आलोचना नहीं करता, उसका प्रतिक्रमण नहीं करता यावत् उसके लिए उचित प्रायश्चित्त अङ्गीकार नहीं करता है यथा - वह सोचता है कि आलोचना आदि करने से मेरी अपकीर्ति होगी। अथवा मेरा अवर्णवाद यानी अपयश होगा अथवा मेरा अविनय होगा अर्थात् साधु लोग मेरा अविनय करेंगे। तीन कारणों से मायावी पुरुष माया करके उसकी .आलोचना नहीं करता यावत् उस दोष के योग्य प्रायश्चित्त अङ्गीकार नहीं करता है यथा - वह सोचता है कि मेरी कीर्ति कम हो जायगी। अथवा मेरा यश कम हो जायगा। अथवा मेरा पूजासत्कार कम हो जायगा। तीन कारणों से मायावी पुरुष नाया करके उसकी आलोचना करता है यावत् उस दोष की शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त रूप तप अङ्गीकार करता है। यथा - वह सोचता है कि मायावी पुरुष का यह लोक गर्हित होता है यानी मायावी पुरुष इस लोक में निन्दित तथा अपमानित होता है। मायावी का उपपात यानी देवलोक में जन्म भी गर्हित होता है क्योंकि वह तुच्छ जाति के देवों में उत्पन्न होता है और सभी उसका अपमान करते हैं। देवलोक से चवने के बाद मनुष्य जन्म भी गर्हित होता है क्योंकि वह नीच कुल में उत्पन्न होता है। वहाँ भी उसका कोई आदर नहीं करता है। तीन कारणों से मायावी पुरुष माया करके उसकी आलोचना करता है यावत् उसके लिए उचित प्रायश्चित्त रूप तप अङ्गीकार करता है यथा - वह सोचता है कि अमायावी पुरुष का यह जन्म प्रशस्त होता है। उपपात यानी देवलोक में जन्म भी प्रशस्त होता है और देवलोक से चवने के बाद मनुष्य जन्म भी प्रशस्त होता है। तीन कारणों से मायावी पुरुष माया करके उसकी आलोचना कर लेता है यावत् उसके योग्य उचित प्रायश्चित्त रूप तप अङ्गीकार करता है यथा - ज्ञान प्राप्ति के लिए, दर्शन प्राप्ति के लिए और चारित्र प्राप्ति के लिए अर्थात् वह सोचता है कि आलोचना करने से मुझे ज्ञान दर्शन चारित्र की प्राप्ति होगी। इसलिए वह आलोचना आदि कर लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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