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स्थान ३ उद्देशक २
१८५ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 फुसं दुक्खं कज्जमाणकडं दुक्खं कट्ट कट्ट पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंति त्ति वत्तव्वं सिया॥८५॥ . ..
॥तइय ठाणस्स बीओ उद्देसओ समत्तो।।
कठिन शब्दार्थ - अण्णउत्थिया - अन्यतीर्थिक, आइक्खंति - कहते हैं, भासंति'- बोलते हैं, पण्णवेति - प्रकट करते हैं, परुति - प्ररूपणा करते हैं, किरिया - क्रिया, कहण्णं - कैसे, कज्जइकी जाती है, जा - जो, कडा - किया हुआ, पुच्छंति - पूछते हैं, अकडा - अकृत, वत्तव्यं - कहना चाहिये, अकजमाण कडं - अतीत में किया हुआ और वर्तमान में किया जाता हुआ, पाणा - प्राण, भूयाभूत, जीवा - जीव, सत्ता - सत्त्व, आहंसु - कहते हैं।
भावार्थ - हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, बोलते हैं, प्रकट करते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि श्रमण निर्ग्रन्थों के मत में क्रिया कैसे की जाती है अर्थात् कर्म दुःखरूप कैसे. होते हैं ? इस विषय में चार भङ्ग होते हैं यथा - १. क्या किया हुआ कर्म दुःख रूप होता है ? २. क्या किया हुआ कर्म दुःख रूप नहीं होता है ? ३. क्या नहीं किया हुआ कर्म दुःख रूप होता है ? ४. क्या अकृत कर्म दुःख रूप नहीं होता है ? इन चारों भङ्गों में जो किया हुआ कर्म दुःख रूप होता है उसके विषय में वे अन्यतीर्थिक नहीं पूछते हैं। जो किये हुए कर्म दुःख रूप होते हैं, उसके विषय में भी वे नहीं पूछते हैं। जो अकृत कर्म दुःख रूप नहीं होते हैं उसके विषय में वे नहीं पूछते हैं किन्तु जो अकृत कर्म है वह दुःख रूप होता है उसके विषय में वे पूछते हैं कि क्या आप भी ऐसा ही कहते हैं ? वे अन्यतीर्थिक लोग उपरोक्त चार भङ्गों में से तीसरे भङ्ग को मानते हैं। इसलिए वे इसी के विषय में पूछते हैं कि यदि श्रमण निर्ग्रन्थ भी ऐसा ही मानें तो अच्छा हो। क्योंकि हमारी और उनकी मान्यता एक हो जाय। इसलिए इस प्रकार कहना चाहिए कि भविष्यत् काल में किया जाने वाला और भविष्यत् काल में स्पर्श करने वाला तथा अतीत काल में किया हुआ और वर्तमान में किया जाता हुआ दुःख बिना किये ही प्राण भूत जीव सत्त्व उसकी वेदना को वेदते हैं।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि वे अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ बोलता हूँ प्रकट करता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि भविष्यत् काल में करने योग्य और स्पर्श करने योग्य और किया जाता हुआ तथा किया हुआ दुःख करके प्राण भूत जीव सत्त्व उसकी वेदना को वेदते हैं इस प्रकार कहना चाहिए। . विवेचन - यहां अन्यतीर्थिक से आशय है-विभंगज्ञान वाले तापस। 'आइक्खंति' आदि एकार्थक शब्दों का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
आख्यान्तिः - थोड़ा कहते हैं भाषन्ते - स्पष्ट वाणी से बोलते हैं प्रज्ञापयन्ति - युक्तियों से समझाते हैं प्ररूपयन्ति - भेद आदि कथन से प्ररूपणा करते हैं।
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