SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ श्री स्थानांग सूत्र 000000000000000000000000000000000000000000000000000 यथा - मागध, वरदाम और प्रभास। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र में भी ये तीन तीर्थ हैं। इस जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में चक्रवर्ती के प्रत्येक विजय में तीन तीर्थ कहे गये हैं यथा - मागध, वरदाम और प्रभास। इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्द्ध में और पश्चिमार्द्ध में तथा पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्वार्द्ध में और पश्चिमार्द्ध में, प्रत्येक में अलग अलग मागध, वरदाम और प्रभास ये तीन तीर्थ होते हैं। विवेचन - वनस्पति के तीन भेद हैं - १. संख्यात जीविक २. असंख्यात जीविक और ३. अनन्त, जीविक। - १. संख्यात जीविक - जिस वनस्पति में संख्यात जीव हों उसे संख्यात जीविक वनस्पति कहते हैं। जैसे - नालि से लगा हुआ फूल। . २. असंख्यात जीविक - जिस वनस्पति में असंख्यात जीव हों उसे असंख्यात जीविक वनस्पति कहते हैं। जैसे - नीम, आम आदि के मूल कन्द स्कन्ध, छाल, शाखा, अंकुर आदि। ३. अनन्त जीविक - जिस वनस्पति में अनन्त जीव हों उसे अनन्त जीविक वनस्पति कहते हैं। जैसे - जमीकंद आलू आदि। - मागध आदि जम्बूद्वीप की खाड़ी के तौर पर होने के कारण 'तीर्थ' कहे जाते हैं। ये देवों के. निवास स्थान हैं। चक्रवर्ती बाण फेंक कर इनको साधते हैं। इनका विस्तृत वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में हैं। बीज बोने के बाद जो जड़े जमीन के अन्दर उंड़ी जाती हैं उसे मूल कहते हैं और बीज का फूला हुआ मोटा भाग जब तक जमीन से बाहर नहीं निकलता तब उसे कन्द कहते हैं और वहीं कन्द का भाग जमीन से बाहर आ जाता है, उसे स्कन्ध कहते हैं। . जंबूहीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीएं सुसमाए समाए तिण्णि सागरोवम कोडाकोडीओ कालो होत्था। एवं ओसप्पिणीए णवरं पण्णत्ते।आगमिस्साए उस्सप्पिणीए भविस्सइ। एवं धायइखंडे पुरच्छिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि। एवं पुक्खरवरदीवद्धपुरच्छिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि कालो भाणियव्यो। जंबूहीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीयाए उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए मणुया तिण्णि गाउयाई उइं उच्चत्तेणं तिण्णि पलिओवमाइं परमाउं पालइत्था। एवं इमीसे ओसप्पिणीए, आगमिस्साए उस्सप्पिणीए। जंबूहीवे दीवे देवकुरुउत्तरकुरासु मणुया तिण्णि गाउयाई उडु उच्चत्तेणं पण्णत्ता, तिण्णि पलिओवमाइं परमाउं पालयंति, एवं जाव पुक्खरवर दीवद्धपच्चत्थिमद्धे। जंबूहीवे दीवे भरहेरवएसुवासेसु एगमेगाए ओसप्पिणी उस्सप्पिणीए ओ वंसाओ उप्पग्जिंसु वा उप्पाजंति वा उप्पग्जिस्संति वा तंजहा - अरिहंतवंसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy