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________________ स्थान २ उद्देशक ३ निवृद्धि - यहाँ 'नि' शब्द का अर्थ अभाव है। वात, पित्त आदि दोषों से शरीर की जो हानि होती है उसे निवृद्धि कहते हैं। विकुर्वणा - वैक्रिय लब्धि वाले मनुष्य और तिर्यंच के विकुँवणा होती है। गति पर्याय - गति का अर्थ है जाना अथवा वर्तमान भव से मर कर दूसरे भव में जाना अथवा वैक्रिय लब्धि वाले गर्भस्थ (मनुष्य तिर्यंच) जीव का प्रदेशों से बाहर संग्राम करना गति पर्याय है। श्री भगवती सूत्र के शतक १ में प्रभु फरमाते हैं - "जीवे णं भंते ! गब्भगए समाणे णेरइएस उववजेजा ? गोयमा। अत्थेगइए उववजेजा अत्थेगइए णो उववजेजा. से केणटेणं • ? गोयमा ! से णं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पजत्तए वीरियलद्धिए विउव्विअलहीए पराणीयं आगयं सोच्चा णिसम्म पएसे णिच्छु भइ णिच्छु भइत्ता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ समोहण्णइत्ता चाउरंगिणिं सेणं विउव्वइ विउव्वइत्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगामं संगामेइ।" . . प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव गर्भ में रहा हुआ नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है ? उत्तर - हे गौतम ! कोई एक उत्पन्न होता है और कोई एक उत्पन्न नहीं होता है। प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? उत्तर - हे गौतम ! संज्ञी पंचेन्द्रिय सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त वीर्य लब्धि और वैक्रिय लब्धि सम्पन्न जीव गर्भ में रहते हुए आक्रान्त शत्रु को सुन कर अपने प्रदेशों को बाहर निकाल कर वैक्रिय लब्धि से चतुरंगिणी सेना बना कः शत्रु सेना के साथ संग्राम करता है। संग्राम करते हुए यदि उस गर्भस्थ जीव की मृत्यु हो जाय तो वह नरक में उत्पन्न हो सकता है। काल संयोग - देव और नैरयिक अन्तर्मुहूर्त में पूर्णांग हो जाते हैं किन्तु मनुष्य और तिर्यंच काल क्रम के अनुसार अपने अंगों का विकास करते हैं। कालकृत अवस्था को कालसंयोग कहते हैं। . आयाति - गर्भ से बाहर आना आयाति कहलाता है। .. छविपर्व - छवि अर्थात् चर्म (चमडा) और पर्व अर्थात् संधियों के बन्धन। चर्म युक्त संधिबन्धन को छवि पर्व कहते हैं। कुछ प्रतियों में 'छवियत्त' पाठ भी मिलता है जिसका अर्थ है - छविकात्मक शरीर। कहीं कहीं 'छविपत्त' पाठ भी मिलता है जिसका अर्थ है - छवि प्राप्त । मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव छवि और पर्व वाले होते हैं। - काय स्थिति - किसी एक ही काय (निकाय) में मर कर पुनः उसी में जन्म ग्रहण करने की स्थिति को कायस्थिति कहते हैं। पृथ्वीकाय आदि के जीवों का पृथ्वीकाय आदि से चव कर पुनः पृथ्वीकाय आदि में ही उत्पन्न होना। भव स्थिति - जिस भव में जीव उत्पन्न होता है उसके उसी भव की स्थिति को भव स्थिति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004186
Book TitleSthananga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size10 MB
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