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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, आउकायपइट्ठियं तह चेव एवं अगणिकायपइट्ठियं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा केवली बूया आयाणमेयं । असंजए भिक्खुपडियाए अगणि उस्सक्किय उस्सक्किय णिस्सक्किय णिस्सक्किय ओहरिय ओहरिय आहट्टु दलइज्जा अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ ३८ ॥
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कठिन शब्दार्थ - पइट्ठियं रखा हुआ, अगणिं - अग्नि को, उस्सक्किय - अग्नि को तेज अर्थात् ईंधन डाल कर, णिस्सक्किय - अग्नि में से ईधन निकाल कर, ओहरिय - अग्नि पर रखे बर्तन को उतार कर या बर्तन को आगे पीछे करके ।
भावार्थ - इसी प्रकार साधु या साध्वी अप्काय तथा अग्निकाय पर रखे हुए अशनादिक आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे क्योंकि केवली भगवान् ने इसे कर्म बंध का कारण कहा है। असंयमी गृहस्थ साधु निमित्त से ईधन डालकर अग्नि को ओर अधिक प्रज्वलित करेगा अथवा जलती अग्नि में से लकड़ी आदि बाहर निकालेगा या अग्नि पर से पात्र को उतार कर अथवा अग्नि पर से पात्र को आगे-पीछे करके आहार देगा । अतः इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर लाभ होने पर भी ग्रहण न करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि सचित्त पृथ्वी, पानी एवं अग्नि पर रखा हुआ आहार अप्रासुक और अनेषणीय होने के कारण साधु साध्वी को ग्रहण नहीं करना चाहिये । भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविट्ठे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, अच्चुसिणं असंजए भिक्खुपडियाए सुप्पेण वा, वियणेण वा, तालियंटेण वा, पत्तेण वा, पत्तभंगेण वा, साहाए वा, साहाभंगेण वा, पिहुणेण वा, पिहुणहत्थेण वा, चेलेण वा, चेलकण्णेण वा, हत्थेण वा, मुहेण वा, फुमिज्ज वा वीइज्ज वा, से पुव्वामेव आलोएज्जा आउसो ति भणिति वा ! मा एवं तुमं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा, अभिकंखसि मे दाउं एमेव दलयाहि । से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीइत्ता आहट्टु दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा ॥ ३९ ॥
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