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________________ [6] महापरिज्ञा के ७, विमोह के ८ और उपधान श्रुत के ४। दूसरे श्रुतस्कन्ध के ३४ हैं। पिण्डैषणा के ११ शय्याएषणा के ३, ईर्या के ३ भाषा के २, वस्त्र के २, पात्र के २, अवग्रह के २, शेष नौ के एक-एक के प्रमाण से ९ में कुल ३४ हुए। इस प्रकार दोनों श्रुत स्कन्ध के ८५ उद्देशक हुए। भाषा की दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कन्ध में तात्विक विवेचन की प्रधानता होने से इसकी रचना सूत्र शैली में की गई है। जिसके कारण इसके भाव-भाषा शैली में क्लिष्टता है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में साधना के रहस्य को व्याख्यात्मक दृष्टि से समझाया गया है। इसलिए इसकी शैली बहुत सुगम एवं सरल है। प्रथम श्रुत स्कन्ध जहाँ छोटे-छोटे वाक्यों में. गंभीरता युक्त रहस्य भरा हुआ है, वैसा दूसरे श्रुतस्कंध में नहीं है। __ आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का अन्वय सहित प्रकाशन पूर्व में संघ द्वारा हो चुका है। जिसका अनुवाद पण्डित रत्न श्री घेवरचन्दजी बांठिया "वीरपुत्र" ने बीकानेर में श्री अगरचन्द भैरुदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था में रह कर किया। अब दूसरे श्रुतस्कंध का प्रकाशन किया जा रहा है। इसके अनुवादक सम्यग्दर्शन के सह सम्पादक श्री पारसमलजी चण्डालिया है। जिसे श्रीमान् धर्मप्रेमी सेवाभावी सुश्रावक श्री हीराचन्दजी पींचा जोधपुर निवासी ने पूज्य पण्डित रत्न श्री घेवरचन्द जी म. सा. को सुनाया और जहाँ-जहाँ संशोधन की आवश्यकता महसूस की गई वहाँ किया गया। इसके बाद मैंने भी इसे पढ़ा। इसकी अनुवाद की शैली संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र वाली रखी गई है। इसमें मूलपाठ-कठिन शब्दार्थ-भावार्थ एवं आवश्यकतानुसार विवेचन भी दिया गया है। संशोधित प्रथम आवृत्ति के प्रकाशन के बाद इसकी द्वितीय आवृत्ति फरवरी २००१ में प्रकाशित हुई वह भी अल्प समय में अप्राप्य हो गयी तो इसकी तृतीय आवृत्ति जनवरी २००४ में प्रकाशित की गयी। प्रकाशन की उपयोगिता को देखते हुए अब इसकी संशोधित चतुर्थ आवृत्ति प्रकाशित की जा रही है। ___ संघ का आगम प्रकाशन का कार्य पूर्ण हो चुका है। इस आगम प्रकाशन के कार्य में धर्म प्राण समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशन हों वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हो। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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