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कलंकली - आयुष्य कर्म की परंपरा से, भावपहं
जाता है।
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
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भावार्थ - इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचित् मात्र भी राग आदि बंधन नहीं है जो साधक निरालम्ब - इहलोक परलोक की आशाओं से रहित है एवं जो अप्रतिबद्ध है वह साधु निश्चय ही संसार में जन्म मरण की परम्परा से विमुक्त हो जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
त्ति बेमि - अर्थात् सुधर्म स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ।
विवेचन - प्रश्न - कलंकली भाव किसको कहते हैं ?
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भावपंथ को विमुच्चइ - विमुक्त हो
उत्तर - कलंकली भाव शब्द के लिए टीकाकार ने लिखा है कि संसारगर्भादिपर्यटनम्" अर्थात् संसार में जन्म मरण करना उसको कलंकली भाव कहते हैं।
'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः " जैन सिद्धांत में बतलाया गया है कि सम्यग् ज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया से मोक्ष होता है ।
प्रस्तुत गाथा में विमुक्ति अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि जो साधक इहलोक परलोक के सुखों की इच्छा नहीं करता है, जो राग द्वेष से निवृत हो चुका है, जो अप्रतिबद्ध विहारी है वह गर्भावास में नहीं आता अर्थात् वह जन्म मरण का अंत कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है।
॥ विमुक्ति नामक सोलहवां अध्ययन समाप्त ॥ ॥ चतुर्थ चूला समाप्त ॥
सदाचार नामक द्वितीय श्रुतस्कंध समाप्त
॥ श्री आचारांग सूत्र ॥
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