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________________ अध्ययन १६ ३६१ . कठिन शब्दार्थ - दिसोदिसिं - सभी दिशाओं में, खेमपया - क्षेमपद-रक्षा के स्थान, ताइणा - रक्षक, णिस्सयरा - निःस्वकराणि-कर्म बंधन को तोडने वाले, पगासया - प्रकाशक-प्रकाश करने वाले। भावार्थ - छहकाया के रक्षक, अनंत ज्ञान संपन्न जिनेन्द्र भगवान् ने सभी एकेन्द्रिय आदि भाव दिशाओं में रहने वाले जीवों के हित के लिए तथा उन्हें अनादिकाल से आबद्ध कर्म बंधनों से छुडाने में समर्थ महाव्रतों का निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इन तीन दिशाओं के अंधकार को नष्ट करके प्रकाश करता है उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अंधकार रूप कर्म समूह को नष्ट करके ज्ञानवान आत्मा तीनों लोकों में प्रकाशक बन जाता है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में पांच महाव्रतों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। जगत् जीवों के कल्याण के लिये तीर्थंकर प्रभु महाव्रतों का निरूपण करते हैं। जो साधक इन महाव्रतों का निर्दोष पालन करते हैं वे अपने कर्म बंधनों को तोड कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाते हैं अर्थात् महाव्रतों की साधना आत्मा को कर्म बंधन से मुक्त कराने वाली है। मूल गाथा में "दिसोदिसिं" शब्द दिया है। जिसकी संस्कृत छाया टीकाकार ने "दिशोदिशः" की है। जिसका अर्थ होता है सभी दिशाओं में। दिशा. के दो भेद हैं-द्रव्य दिशा और भाव दिशा। द्रव्य दिशा के अठारह भेद हैं और भाव दिशा के भी अठारह भेद हैं। 'द्रव्य दिशा के अठारह भेद इस प्रकार हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (दिशा), ईशाणकोण आग्नेयकोण, वायव्यकोण और नैऋत्यकोण (विदिशा) इन आठ के बीच में आठ अन्तराल दिशाएँ हैं इनको अनुदिशा कहते हैं। विमला (ऊर्ध्वदिशा-ऊंची-दिशा), तमा (अधोदिशा-नीची दिशा) इस प्रकार ये अठारह द्रव्य दिशाएँ हैं। ... जीव को लक्ष्य करके अठारह भाव दिशाएँ बतलाई गयी हैं वे इस प्रकार हैं - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज और स्कन्धबीज (ये चार वनस्पतिकाय) बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, अकर्मभूमि मनुष्य, कर्मभूमि मनुष्य, अन्तरद्वीपिक मनुष्य और सम्मूर्छिम मनुष्य, नरक और देव। ये अठारह भाव दिशाएँ हैं। इन अठारह भाव दिशाओं को अठारह द्रव्य दिशाओं से गुणा करने पर (१८x१८-३२४) तीन सौ चौबीस होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक जीव इन तीन सौ चौबीस दिशाओं में अनादि काल से परिभ्रमण करता आ रहा है। अब मनुष्य भव मिला है। ज्ञानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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