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________________ ३५४ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ राग द्वेष न करे। केवली भगवान् कहते हैं जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंध में आसक्त, आरक्त, गृद्ध यावत् राग द्वेष से युक्त हो जाता है वह शांति रूप चारित्र को नष्ट कर देता है, शांति भंग करता है और शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ___ऐसा संभव नहीं है कि नासिका के सान्निध्य में आए हुए गंध के परमाणु सूंघे न जाएं किन्तु सूंघने पर उनमें राग द्वेष उत्पन्न होता है तो भिक्षु (साधु-साध्वी) उसका त्याग करे। ___ अतः घ्राणेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ या अमनोज्ञ सभी प्रकार की गंधों को सूंघता है किन्तु निर्ग्रन्थ साधक उसमें आसक्त नहीं हो यावत् राग द्वेष नहीं करे। यह तीसरी भावना है। _____ अहावरा चउत्था भावणा जिब्भाओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रसाइं अस्साएइ, मणुण्ण्णामण्णुणेहिं रसेहिं णो सजिज्जा णो रजिज्जा जाव णो विणिग्यायमावज्जिजा, केवली बूया, णिग्गंथे णं मणुण्णामण्णुणेहिं रसेहिं सज्जमाणे जाव विणिग्याय-मावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा। णो सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्ख परिवज्जए॥ जीहाओ जीवो मणुण्णामणुण्णाइं रसाइं अस्साएइ त्ति चउत्था भावणा॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अस्साएइ - आस्वादन-चखता है। भावार्थ - इसके पश्चात् चौथी भावना इस प्रकार है-जिह्वा से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है किन्तु वह उन रसों में आसक्त न होवे, आरक्त न होवे, गृद्ध न होवे, मूर्च्छित न होवे, अत्यासक्त न होवे और उन पर राग द्वेष नहीं करे। केवली भगवान् का कथन है कि जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में आसक्त होता है, आरक्त होता है यावत् रागद्वेष करता है वह शांति रूप चारित्र को नष्ट करता है, शांति भंग करता है और शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा नहीं होता है कि जिह्वा प्रदेश में आए हुए अर्थात् जीभ पर रखे हुए रसों को जिह्वा चखे नहीं किन्तु उन रसों के प्रति जो रागद्वेष होता है भिक्षु (साधु साध्वी) उसका त्याग करे। अतः जिह्वा से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है किन्तु निर्ग्रन्थ उनमें आसक्त, आरक्त यावत् रागद्वेष नहीं करे। यह चौथी भावना है। अहावरा पंचमा भावणा फासओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई फासाइं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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