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__ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
तस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा, सोयओ णं जीवे मणुण्णामणुण्णाई सद्दाइं सुणेइ, मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं णो सजिजा, णो रजिजा, णो गिज्झिज्जा, णो मुज्झिज्जा, णो अज्झोववज्झिजा, णो विणिग्यायमावजिजा, केवली बूया, णिग्गंथे णं मणुण्णा मणुण्णेहिं सहेहि सज्जमाणे जाव विणिग्घाय-मावजमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसिजा।
ण सक्का ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ सोयओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई सहाई सुणेइ त्ति पढमा भावणा॥
कठिन शब्दार्थ - सोयओ - श्रोत्र इन्द्रिय से, मणुण्णामणुण्णाई - मनोज्ञ और अमनोज्ञ, सजिज्जा - आसक्त होवे, रजिज्जा - रागभाव करे, गिल्झिज्जा - गृद्ध होवे, मुज्झिज्जा - मूछित होवे, अझोववजिज्जा- अत्यंत आसक्त होवे, विणिग्यायं - विनिघातविनाश को, आवजिजा - प्राप्त होवे, सोयविसयं - श्रोत्र विषय में, आगया - आये हुए।
भावार्थ - उस पांचवें महाव्रत की पांच भावनाएँ ये हैं। उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है - श्रोत्र इन्द्रिय (कान) से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों को सुनता है परन्तु वह उनमें आसक्त न होवे, रागभाव न करे, गृद्ध न होवे, मोहित न होवे, अत्यंत आसक्ति न करे और न ही रागद्वेष करे। केवली भगवान् का कथन है-जो साधु मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता है यावत् राग द्वेष करता है वह शांति रूप चारित्र का नाश करता है, शांति को भंग करता है और शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
श्रोत्र विषय में आए हुए (कान में पड़े हुए) शब्द नहीं सुने जाय, यह संभव नहीं है किन्तु उनके सुनने पर जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है भिक्षु (साधु साध्वी) उसका त्याग करे। ___अतः श्रोत्रेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ सभी प्रकार के शब्दों को सुनकर उनमें आसक्त न होवे अर्थात् मनोज्ञ शब्द में राग भाव और अमनोज्ञ शब्द में द्वेष भाव नहीं करें। यह प्रथम भावना है।
अहावरा दोच्चा भावणा, चक्खुओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रूवाई पासइ, मणुण्णामणुण्णेहिं रूवेहिं णो सजिज्जा णो रजिज्जा जाव णो विणिग्यायमा
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