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________________ अध्ययन १५ ३३३ orrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. 'पुव्वदेवाणं पच्छा मणुस्साणं' - भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के बाद प्रथम देशना में - महोत्सव में आये देवादि को प्रवचन दिया उसमें एक दो मनुष्य भी हो परन्तु मुख्यता देवों की थी तथा व्रतधारण करने वाले कोई नहीं होने से अभावित परिषदा (ठाणांग १०) कहा है। इस विषय में ग्रन्थकारों की भिन्न-भिन्न मान्यता है। जैसे कल्प सूत्र वृत्ति, स्थानाङ्गवृत्ति, प्रवचन सारोद्धार वृत्ति आदि में कहा कि - देव मनुष्य बहुत आये परन्तु अभावित थे। आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति में कहा है कि केवल देव ही आये। भगवान् महावीर प्रभु वहाँ से विहार कर आगे पहुँचे तब तीर्थ स्थापना के दिन मनुष्यों की मुख्यता में देशना दी। कितनेक भगवान् को केवलज्ञान होने के बाद रात्रि में विहार कराके दूसरे दिन तीर्थ स्थापना करना मानते हैं। परन्तु वह उचित नहीं लगता है। आगमों से तो तीर्थंकर भी रात्रि विहार नहीं करते हैं ऐसा मालूम पड़ता है। अतः तीर्थ स्थापना दूसरे दिन नहीं मानकर ३-४ आदि जितने दिन लग सके उसके बाद मानने में बाधा नहीं है। जैन साहित्य के मौलिक इतिहास में 'दिगम्बर मान्यता' दी है जो कि ६६ दिनों के बाद मानती है। .. तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं पंच महव्वयाई सभावणाई छज्जीवणिकायाई आइक्खइ, भासइ, पण्णवेइ परूवेइ तंजहा-पुढविकाए जाव तसकाए॥ भावार्थ - तत्पश्चात् केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को भावना सहित पांच महाव्रतों और पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षड् जीव निकायों के स्वरूप का कथन किया और सामान्य तथा विशेष रूप से प्ररूपण (प्रतिपादन) किया। . नोट - यहाँ मूल पाठ में चार शब्द दिये हैं “आइक्खइ, भासइ, पण्णवेइ और प्ररूवेइ।" 'आइक्खइ' यह "ख्याप्रकथने" इस धातु का वर्तमान काल में 'आख्याती' शब्द बनता है जिसका अर्थ है शब्दों द्वारा स्पष्ट अर्थ कहना। "भासइ" बारह प्रकार की परिषद में सब प्राणियों को अपनी अपनी भाषा में परिणत होनी वाली अर्धमागधी भाषा से भाषण करना। 'पण्णवेइ' सभी प्रकार के संशयों को दूर करते हुए जीवादि पदार्थों की प्रज्ञापना करना। 'परूवेइ' सामान्य विशेषात्मक रूप से प्ररूपणा करना। वैसे तो सामान्य रूप से ये चारों शब्द एकार्थक हैं किन्तु अलग-अलग धातुओं की क्रिया होने से इन के विशेष रूप से भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं जो ऊपर बतला दिये गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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