SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .000000000.............................................. किया हो तो उस अशनादिक को अप्रासुक तथा अनेषणीय जानकर साधु मिलने पर भी ग्रहण न करे। और यदि इस प्रकार जाने कि यह आहार पुरुषान्तरकृत हो चुका है यावत् दूसरों ने सेवन कर लिया है तो उसे प्रासुक और एषणीय जानकर मुनि ग्रहण कर सकता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को उस घर में नहीं जाना चाहिये उस घर से आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये जहाँ अष्टमी के पौषधोपवास का महोत्सव हो या इसी तरह अर्द्धमास, एक, दो, तीन, चार, पांच या छह मास की तपस्या का महोत्सव हो या ऋतु, ऋतु संधि और ऋतु परिवर्तन का महोत्सव हो और अन्य मत के भिक्षु भोजन कर रहे हो। यद्यपि यह भोजन आधाकर्म दोष से युक्त नहीं है फिर भी सूत्रकार ने 'अफासुयं' शब्द का प्रयोग किया है, इसका तात्पर्य यह है कि ऐसा आहार जब तक पुरुषान्तर कृत नहीं हो जाता जब तक साधु के लिए अकल्पनीय है। परिवार के सदस्यों स्नेही संबंधियों के उपभोग करने के बाद (पुरुषान्तरकृत होने पर) साधु उसे ग्रहण कर सकता है। ... अष्टमी पौषध आदि का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - अमुक समय तक लौकिक एवं कुप्रावनिक पद्धति से अष्टमी-अष्टमी के दिन उपवास आदि किये हों, उसकी समाप्ति के निमित्त से उजमना (उद्यापन-जीमण विशेष) करके श्रमण-माहण आदि को आहार देते हों, उस उत्सव विशेष को "अष्टमी पौषध" कहते हैं। ऐसे ही पाक्षिक पौषध' आदि समझना चाहिए। - सेभिक्खूवा भिक्खुणीवा जाव पविठू समाणे से ज़ाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा, तंजहा-उग्गकुलाणि वा, भोगकुलाणि वा, राइण्णकुलाणि वा, खत्तियकुलाणि वा, इक्खागकुलाणि वा, हरिवंसकुलाणि वा, एसियकुलाणि वा, वेसियकुलाणि वा, गंडागकुलाणि वा, कोट्टागकुलाणि वा, गामरक्खकुलाणि वा, वोक्कसालियकुलाणि (पोक्कासाइयकुलाणि) वा, अण्णयरेसुवा, तहप्पगारेसु कुलेसुअदुगुंछिएसुअगरहिएसुवा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा फासुयं एसणिज जाव पडिग्गाहिज्जा॥११॥ - कठिन शब्दार्थ - उग्गकुलाणि - उग्र कुल, भोगकुलाणि - भोग कुल, राइण्णकुलाणि- राजन्य कुल, खत्तिय कुलाणि - क्षत्रिय कुल, इक्खाग कुलाणि - इक्ष्वाकु कुल, हरिवंसकुलाणि- हरिवंश कुल, एसियकुलाणि - गोपाल कुल, वेसियकुलाणि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy