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________________ अध्ययन १५ ३१३ समान श्वेत, छेयायरिय कणग खचियंतकम्मं - कुशल शिल्पाचार्यों द्वारा सोने के तारों से जिसकी किनारी बांधी हुई है, हंसलक्खणं - हंस के समान श्वेत वर्णवाला, पट्टजुयलं - वस्त्र युगल को, णियंसावेइ - पहनाता है, उरत्थं - वक्ष स्थल में, णेवत्थं - सुंदर वेश, पालंबसुतं - प्रालम्ब सूत्र-लटकते हुए झुमके,पट्ट मउड रयणमालाओ - कटिसूत्र मुकुट, रत्नमालाएं, आविंधावेई - पहनाता है, गंथिम वेढिम पुरिम संघाइमेणं- ग्रन्थित, वेष्टित, पूरिम और संघातिम से, सिवियं - शिविका-पालकी, सहस्सवाहणियं - सहस्र वाहनिका, ईहा-मिय-उसभ-तुरग-णर-मकर-विहग-वाणर-कुंजर-रुरु-सरभ-चमर-सहुल-सीह - वृक विशेष, मृग (हिरण), वृषभ (बैल) अश्व (घोड़ा), मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, बंदर, हाथी, मृगविशेष, शरभ (अष्टापद) चमरीगाय, शार्दूल सिंह, विजाहर-मिहुणजुयल - विद्याधर, मिथुन युगल, जंत - यंत्र विशेष, जोगजुत्तं - योग युक्त, अच्चिसहस्समालिणीयं - सहस्र सूर्य की किरणों से युक्त, सुणिरूवियं - सुनिरूपित, मिसिमिसिंतरूवगसहस्सकलियं - प्रदीप्त सहस्र रूपों से युक्त, भिसमाणं - देदीप्यमान (चमकती हुई), भिब्भिसमाणं - .अत्यंत देदीप्यमान, चक्खुल्लोयणलेसं - चक्षुओं से लेशमात्र ही अवलोकनीय, मुत्ताहलमुत्तजालंतरोवियं - मोती और मोतियों की जाली से सुशोभित, तवणीय-पवरलंबूस-पलवंत-मुत्तदाम - सुवर्णमय कंदुकाकार आभूषणों से युक्त मोतियों की मालाएँ जिससे लटक रही थी, अहियपिच्छणिजं - अधिक प्रेक्षणीय-देखने योग्य, णाणामणिपंचवण्ण-घंटापडाय-परिमंडियग्गसिहरं - नाना प्रकार की पांच वर्ण वाली मणियों, घंटा तथा पताकाओं से जिसका शिखर भाग मंडित हो रहा है। . . भावार्थ - तत्पश्चात् देवों के इन्द्र देवराज शक्र ने शनैःशनै अपने यान विमान को वहाँ ठहराया, फिर वह धीरे धीरे विमान से उतरा। विमान से उतरते ही देवेन्द्र सीधा एक ओर एकान्त में गया, वहाँ जाकर उसने एक महान् वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्घात करके इन्द्र ने अपने मणि-स्वर्ण-रत्न आदि से जटित शुभ सुन्दर मनोहर कांत रूप वाले एक बहुत बड़े देवच्छंदक (जिनेन्द्र देव के लिये विशिष्ट स्थान-चबुतरा) का विक्रिया द्वारा निर्माण किया। उस देवच्छंदक के ठीक मध्य भाग में पादपीठ सहित एक विशाल सिंहासन की विकुर्वणा की, जो नाना मणि स्वर्ण रत्न आदि की रचना से चित्र विचित्र शुभ सुन्दर और रम्य रूप वाला था। उस सिंहासन की रचना करके वह जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे वहाँ आया, आकर भगवान् की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की फिर उन्हें वंदन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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