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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
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कठिन शब्दार्थ - सामग्गियं समग्रता, सव्वद्वेहिं - सभी अर्थों में, समिए - समितसमिति से युक्त, सहिए - ज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त, सया सदा, जए यत्न करे । भावार्थ - यह साधु और साध्वी का आचार है वह सभी अर्थों में समिति से युक्त ज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त होकर सदैव संयम में यत्न करे, ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - जैन साधु साध्वी सर्वथा निर्दोष आहार ही ग्रहण करते हैं । इस बात को सूत्रकार ने 'सव्वद्वेहिं समिए ..... पदों से व्यक्त किया है। जिसकी टीकाकार ने इस प्रकार व्याख्या की है -
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'सर्वार्थे - सरसविरसादिभिराहारगतैः यदि वा रूपरसगंधस्पर्श गतैः सम्यगितः समितः संयत इत्यर्थः । पञ्चभिः वा समितिभिः समितः शुभतरेषु रागद्वेषविरहित इंति यावत् एवंभूतश्च सह हितेन वर्तते इति सहितः सहितो वा ज्ञानदर्शनचारित्रैः ' - आचारांगवृत्ति २, ११९
अर्थ - मुनि सरस एवं नीरस जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता है उसे समभाव से ग्रहण करता है। वह रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहता है। वह पांच समिति से युक्त रहता है, राग द्वेष से दूर रहने का प्रयत्न करता है वह रत्नत्रय - ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त होने से संयत है और वह निर्दोष मुनिवृत्ति का पालन करता है यही उसकी समग्रता है।
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त्ति बेमि अर्थात्-आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही तुम्हें कहता हूँ ।
।। प्रथम अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्टे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अट्ठमि पोसहिएसु वा अद्धमासिएसु वा मासिएसु वा दो मासिएस वा, तेमासिएसु वा चाउम्मासिसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा उऊसु वा उउसंधीसु वा
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