SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध . श्रियां यशसि सौभाग्य योनौ कान्तौ महिम्नि च। सूर्ये संज्ञा विशेषे च मृगाङ्केऽपि भगः स्मृतः॥ अर्थ - श्री (लक्ष्मी), यश, सौभाग्य, योनि, कान्ति, महिमा, सूर्य, संज्ञा विशेष और मृगाङ्क (चन्द्रमा) इन नौ अर्थों में 'भग' शब्द का प्रयोग होता है। धार्मिकता की दृष्टि से 'भग' शब्द के छह अर्थ कहे गये हैं यथा - ऐश्वरस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयलस्य षण्णां भग इतीङ्गना॥ अर्थ - सम्पूर्ण ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री (लक्ष्मी), धर्म और प्रयत्न-पुरुषार्थ। इस प्रकार 'भग' शब्द के पन्द्रह अर्थ हो जाते हैं। ये पन्द्रह ही अर्थ भगवान् में घटित हो जाते हैं। योनि का अर्थ है चौरासी लाख योनि का अन्त कर मुक्ति प्राप्त करने वाले। ___ भगवान् महावीर स्वामी के लिये जो विशेषण दिये गये हैं उनमें सर्वप्रथम 'श्रमण' विशेषण दिया गया है। श्रमु तपसि खेदे च' इस तप और खेद अर्थ वाली 'श्रमु' धातु से श्रमण शब्द बना है 'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः' जिसका अर्थ यह होता है कि - जो . तपस्या करे और जगज्जीवों के खेद को जाने, वह 'श्रमण' कहलाता है। अथवा 'समणे' शब्द की संस्कृत छाया 'समन' भी होती है जिसका अर्थ यह है कि जिसका मन शुभ हो जो समस्त प्राणियों पर समभाव रखे उसे 'समन' कहते हैं। जो ऐश्वर्यादि से युक्त हो अर्थात् पूज्य हो उसे 'भगवान्' कहते हैं। .. राग द्वेषादि आन्तरिक शत्रु दुर्जेय हैं। उनका निराकरण करने से जो महान् वीर-पराक्रमी है वह महावीर कहलाता है। भगवान् का यह गुणनिष्पन्न नाम देवों द्वारा दिया गया था। जैसा कि आगे इसी आचाराङ्ग सूत्र में मूल पाठ में आ जायेगा। यथा-"भीमं भयभेरवं उरालं अचले परीसह-सहइ इति कट्ट देवेहिं से नामं कयं समणे भगवं महावीरे।" . अर्थात् दीक्षा लेने के बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देव, मनुष्य और तिर्यच कृत भयंकर से भयंकर घोरातिघोर परीषह उपसर्गों को अचल (अडोल-चलित न होते हुए) रह कर समभाव से सहन किये थे इसलिये देवों ने उनका नाम 'महावीर' दिया। समणे भगवं महावीरे, इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वीइक्कताए, सुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमदुस्समाए समाए वीइक्कंताए, दुसमसुसमाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy