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________________ सप्तसप्तिका नामक द्वितीय चूला स्थाना सप्तिका नामक आठवां अध्ययना आचारांग सूत्र का द्वितीय श्रुतस्कंध चार चूलाओं में विभक्त है। पहली चूला और दूसरी चूला में सात-सात अध्ययन हैं। तीसरी और चौथी चूला में एक एक अध्ययन है। प्रथम चूला के सातों अध्ययन विभिन्न उद्देशकों में विभक्त हैं जबकि द्वितीय चूला के सातों अध्ययन में उद्देशक नहीं हैं। प्रथम चूला के अंतिम सातवें अध्ययन में अवग्रहों से याचना किए गये स्थान में साधु को किस तरह से कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करनी चाहिये इसका वर्णन द्वितीय चूला में किया गया है। द्वितीय चूला के सातों अध्ययनों का संबंध अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये, स्थानों में साधना करने की विधि से है इसलिये इसका नाम 'सप्तसप्तिका चूला' रखा गया है। इसके प्रथम अध्ययन में साधु को उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि किस प्रकार करना चाहिये, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं - से भिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसिज्जा गामं वा, णगरं वा, सण्णिवेसं वा जाव रायहाणिं वा से जं पुण ठाणं जाणिज्जासअंडं जाव मक्कडासंताणयं तं तहप्पगारं ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा एवं सिज्जा गमेण णेयव्वं जाव उदयपसूयाई त्ति॥ . कठिन शब्दार्थ - ठाइत्तए - स्थित होना। - भावार्थ - किसी ग्राम, नगर, सन्निवेश यावत् राजधानी में ठहरने के इच्छुक साधु साध्वी पहले ग्रामादि में जाकर उस स्थान को जाने अर्थात् स्थान का अन्वेषण करे जो स्थान अंडों यावत् मकडी के जालों से युक्त हो उसे मिलने पर भी अप्रासुक और अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। इसी प्रकार अन्य सूत्र भी शय्या अध्ययन के समान जान लेना चाहिये यावत् उदक प्रसूत कन्दादि अर्थात् जिस स्थान में कन्द मूल आदि वनस्पति विद्यमान हो उसे भी ग्रहण न करे। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शय्यैषणा अध्ययन की तरह स्थान संबंधी गवेषणा में विवेक का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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