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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .0000000000000000000000000000............................ एवं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा गामाणुगामं दूइजिज्जा तिव्वदेसियाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए णवरं इत्थ पडिग्गहे।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्व हिं समिए सहिए सया जइज्जासि त्ति बेमि॥१५४॥
॥पाएसणा समत्ता॥ कठिन शब्दार्थ - अंतोपडिग्गहगंसि - पात्र में, परिभाइत्ता - विभाग करके, णीहट्ट - निकाल कर, ससिणिद्धाए - स्निग्ध, णियमिजा - परठ दे, आमजिज्ज - प्रमार्जित करे, पयाविज - धूप में सूखाए।
भावार्थ - गृहपति के घर में प्रवेश करते हुए साधु या साध्वी को कदाचित् कोई गृहस्थ घर के भीतर से बाहर लाकर अन्य किसी पात्र में सचित्त पानी को डाल कर दे तो तथाप्रकार के पात्र को जो कि पानी से भरा हुआ है गृहस्थ के हाथ में है या अन्य पात्र में है उसे अप्रासुक और अनेषणीय जान कर साधु साध्वी ग्रहण न करे। कदाचित् असावधानी से वह जल ग्रहण कर लिया हो तो साधु साध्वी शीघ्र ही उस पानी को डालने योग्य भाजन में डाल दे। यदि गृहस्थ पानी वापिस लेना न चाहे तो पानी युक्त पात्र को किसी एकान्त स्थान में ले जाकर पानी को निर्दोष स्थान पर परठ दे। साधु या साध्वी पानी को परठने के बाद जिससे पानी की बूंदे टपक रही हो अथवा जो पानी से गीला है उस पात्र को प्रमार्जित न करे यावत् धूप में नहीं सूखाए और जब इस प्रकार जाने कि मेरा पात्र पानी से रहित हो गया है और गीला भी नहीं है तो साधु उसे यतना पूर्वक प्रमार्जित करे यावत् धूप में सूखाए।
साधु या साध्वी जब आहार लेने के लिए गृहस्थ के घर में जाए अथवा स्थंडिल भूमि या स्वाध्याय भूमि में जाए तो अपने पात्र साथ में लेकर जाए। ग्रामानुग्राम विहार करते समय भी पात्र को साथ में ही लेकर जाए। यदि थोड़ी बहुत वर्षा हो रही हो तो जैसा द्वितीय वस्त्रैषणा अध्ययन में वर्णन किया है उसी अनुसार समझना चाहिये। विशेष इतना ही है कि वहाँ सभी वस्त्रों को साथ में लेकर जाने का निषेध है जबकि यहाँ अपने सभी पात्रों को लेकर जाने का निषेध है। .
यही साधु या साध्वी का समग्र आचार है। प्रत्येक साधु साध्वी को इसके पालन करने
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