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अध्ययन ५ उद्देशक २
संपिंडिया गच्छिज्जा णो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिजा जाव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ॥
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा दूइजमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेजा णं आमोगा एवं वइज्जा आउसंतो ! आहरेयं वत्थं देहि, णिक्खिवाहि जहा इरियाए णाणत्तं वत्थं पडियाए ।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं समिए सहिए सया जइज्जासि त्ति बेमि ॥ १५१ ॥
॥ वत्थेसणा समत्ता ॥
कठिन शब्दार्थ - विहं - अटवी, संपिंडिया - एकत्रित होकर, णिक्खिवाहि रख दे। भावार्थ - ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए मार्ग में कोई अटवी आ जाय और अटवी को पार करते समय बहुत से चोर वस्त्र छीनने के लिए एकत्रित होकर आए हों तो साधु-साध्वी उनसे डर कर उन्मार्ग में गमन न करें। यदि वे चोर कहें कि हे आयुष्मन् श्रमण ! यह वस्त्र हमें दे दो, यहां रख दो ? तब जैसा ईर्याध्ययन में वर्णन किया है उसी प्रकार करे। इतना विशेष है कि यहां पर वस्त्र के विषय में समझना ।
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यही साधु और साध्वी का समग्र संपूर्ण आचार है। अतः ज्ञान, दर्शन, और चारित्र तथा पांच समितियों युक्त मुनि विवेक पूर्वक आत्म-साधना में संलग्न रहे। ऐसा मैं कहता हूँ अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहता हूँ ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में आगमकार ने स्पष्ट कर दिया है कि साधु साध्वी सदैव निर्भय हो कर विचरे । मार्ग में यदि चोर मिल जाए और वे वस्त्र मांगे तो साधु साध्वी वस्त्रों को जमीन पर रख दें, उन्हें हाथ में न दे और उससे करुणा पूर्वक याचना भी न करे। यदि अवसर देखे तो उन्हें धर्म का उपदेश देकर सन्मार्ग में लाने का प्रयत्न करे। वस्त्र केवल संयम साधना में सहायक है अतः उन पर किसी प्रकार का ममत्व न रखे।
॥ पांचवें अध्ययन का दूसरा उद्देश्यक समाप्त ॥
* वस्त्रैषणा नामक पांचवां अध्ययन समाप्त
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